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________________ 170 'अणादि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्रकृत वार्तिक से 'यत्' प्रत्यय होगा । वार्तिक में सर्वत्र ग्रहण पूर्वोक्त वार्तिक के अपत्य' की निवृत्ति के लिए हैं इस प्रकार सर्वत्र पाठ से 'अपत्यार्थ' में ही 'यत्' का निषेध ही नहीं, प्रत्युत सभी 'प्राग्दीव्यतीयाथों' में 'यत्' का विधान किया गया है अथवा सर्वत्र ग्रहण से यह भी आशय लगाया जाता है कि 'प्राग्दी व्यतीय ' अर्थ में 'यत्' नहीं होता है असा 'प्राग्दी व्यतीय ' अर्थों में ही नहीं प्रत्युत सर्वत्र अर्थों में 'गो' शब्द से 'अणा दि' प्रसङग रहने पर 'यत्' प्रत्यय सर्वत्र पाठ से ग्राह्य है । अत: 'गवा चरति गव्यः' इस रूप में 'चरति' आदि अधों में भी इसी वार्तिक से 'यत्' का * विधान किया गया है । वस्तुत: 'प्राग्दीव्यतीय' में इसका पाठ होने से 'प्राग्दीव्यतीय' सभी अधों को ग्रहण सिद्ध है अतः सर्वत्र कथन अनुपयुक्त है । 'एतावता'. सर्वत्र कथन से 'अप्राग्दीव्यतीयाथों' का भी ग्रहण किया गया है । उक्त कथन का प्रदीपोद्योतकार भी समर्थन करते हैं। दीक्षितजी एवं वरदराज जी ने इस वार्तिक का उल्लेखा करते समय सर्वत्र का उल्लेख नहीं किया है अत: उनके मत में इस वार्तिक की प्रवृत्ति केवल प्राग्दी व्यतीय अथों में ही होती है । कौमुदीकार को आय पक्ष ही अभीष्ट है ।
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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