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________________ 165 पदों का एवं विना उत्तरपद के लोप के ही 'प्रपर्ण' इत्यादि की सिद्धि हो गयी। और जब 'प्रपतिता दि' शब्दों के द्वारा ही वह अर्थ कहा जाय तो 'प्रपतितादि' पदों का ही समास होगा। इस प्रकार 'प्रपतितपर्णः ' इत्यादि भी होता ही है । नत्रोऽस्त्यानां वाच्यो वा चोत्तर पद लोपः। 'अनेकमन्यपदार्थे ' सूत्र भाष्य पर 'ननोऽन्त्यमा च'2 यह वार्तिक पढ़ा गया है । यहाँ सप्तम्युपमान इत्यादि वार्तिक से अथवा 'प्रादिभ्यः ' इप्त वार्तिक से 'उत्तरपद लोपश्च' का अनुवर्तन करते हैं। इसी आशय को दृष्टिगत करते हुए वरदराज द्वारा वार्तिक का उपर्युक्त अाकार पढ़ा गया है । वार्तिक का अर्थ है - 'नञ्' से परे 'अत्यर्थ' वाचक पद के तदना का अन्य पद के साथ समास तथा उत्तरपद अर्थात् विद्यमानार्थक पद का लोप होता है । यहाँ पर भी बहुव्रीहि समास अनेकमन्यपदार्थे' से ही सिद्ध है परन्तु उत्तरपद लोप के लिए वार्तिक का अवतरण किया गया है । 'अविद्यमान पुत्रो स्य' । जिस का पुत्र न हो। अपुत्र इत्यादि उदाहरण हैं। यहाँ 'न' में परे 'अस्त्यर्थ' वाचक विद्यमान शब्द का विकल्प से लोप होता है, लोप पक्ष में 'अविद्यमान पुत्रः ' ये दो शब्द स्वरूप निष्पन्न होते हैं । यह वार्तिक भी पूर्व वार्तिक के समान न्याय सिद्ध है। ऐसा पद म जरी कार का भी अभिमत है । 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, बहुव्रीहि समास प्रकरणम्, पृष्ठ 866. 2. अष्टाध्यायी 2/2/24.
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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