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________________ 162 सूत्रस्थ कैयट के अनुरोध से 'दिगुप्राप्तापन्ने' इत्यादि दार्तिक का आकार वरद राज जी ने पढ़ा है वस्तुतस्थु 'दिगुग्रहण' व्यर्थ ही है । जैसे - अर्धपिप्पली इत्यादि में 'पूर्वपद' प्रयुक्त लिद्ग के बाधनार्थ ही 'परवल्लिद्गं दन्द्रतत्पुरुभयो:' इस सूत्र का आरम्भ किया है। यहाँ पर 'शब्द सम्बन्धिा घाब्द होने से पूर्वपद प्रयुक्त लिङ्ग को ही 'परवत्' इस युक्ति से निष्पन्न करता है । 'परवत्' ही होगा न कि 'पूर्ववत्' । तत्पुरुष के 'बहिर्भूततद्धितार्थप्रयुक्तलिङ्ग' के बाधम में 'परवल्लिद्ग' का सामर्थ्य नहीं है क्योंकि वह तत्पुरा के घt क पूर्वपदप्रयुक्त लिडंग के बाधने में चरितार्थ हो गया है। इस प्रकार 'प चकपालः पुरोडाश' इत्यादि में 'तद्वितार्थ' के प्राधान्य होने से 'पुत्व' अनायास ही सिद्ध हो गया 'तदर्ध' दिगु में 'परवल्लिङ्ग' प्रतिषेध आवश्यक नहीं है । अतएव भाष्य में उक्त वार्तिक में दिगुग्रहण नहीं है । यह उद्योत में स्पष्ट है ।। यहाँ विशेष यह है कि 'अर्धपिप्पली' इत्यादि एक देशि समास में पूर्व पदार्थ के प्रधान होने से पूर्वपदप्रयुक्त लिग अनायास प्राप्त हो जाता है और 'परवल्लिद्ग' इष्ट है । इस लिए 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्वतत्पुरज्यो: ' सूत्र में तत्पुरुष का ग्रहण किया गया है । 'एकदेशि' समाप्त में ही 'तत्पुरग्रहणं' प्रयोजक है । तत्पुरता का ग्रहण करने पर 'प्राप्तजीवकः ' इत्यादि में भी 'परवल्लिद्ग' प्राप्त होता है । वहाँ पर 'परवल्लिद्ग' इsc है अतः 'तदर्थ' वार्तिक की रचना 1. वस्तुतो दिगुग्रहणं परवदित्यस्यान्तरङ्गत्वेन तत्पु समाब्दमात्रेनिमित्तकलिग बाधाकतया एव यु क्तत्वात् व्यर्थमिति बोध्यम् - उद्योत 9/2/44.
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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