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________________ 151 दन्द्र तत्पुरुभयोरुत्तरपदे नित्यस मासवचनम् 'तद्वितार्थोत्तरपदसमाहारे च2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'वाक्य दृषच्च प्रिये यस्य वाग्दृष्दप्रियः' इत्यादि में दोनों पदों का द्वन्द्व समास नित्य ही होने लगेगा । इसी प्रकार 'प च गावो धनं यस्य ' इस 'त्रिपद बहुव्रीहि' में आदि 'प च' और 'गो पदों' का 'तद्विताओं त्तरपदसमाहारे च' से नित्य तत्पुरुष समास होने लगता इस लिए इस वार्तिक का आरम्भ किया अन्यथा उक्त 'स्थनद्वय ' में त्रिपद बहुव्री हि' में भी 'म्हा निभाषा' के अधिकार से पूर्व दोनों पदों का वैकल्पिक द्वन्द्व समास और वैकल्पिक तत्पुरुष समास होने लगेगा एवं दन्द्र पक्ष में 'वाग्दृष्दप्रियः ' में 'दन्द्राच्युषदहान्तात् 'समाहारे' सूत्र से समासान्त 'टच' होने लगेगा । द्वन्द्वाभावपक्षा में 'टच' न होगा। 'वाग्दृष्ट प्रियः ' यह ही इष्ट है न कि वारदृषन्तत् प्रियः' । इस प्रकार 'प चगव धाः' में पूर्व में दोनों पदों का तत्पुरुष समास होने पर 'गोशब्दोत्तर' में 'गोरतद्वितनु कि'' सूत्र से 'समासान्त cच' होने लगेगा और तत्पुरुषाभावपक्ष में च' न होता तो 'प चगोधनः ' यह प्रयोग की अनिष्ट पत्ति होगी। अतएव जब उत्तरपद के साथ बहुव्रीहि होगा उस समय दोनों पूर्वपदों का नित और - - - I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समाप्त प्रकरणम्, पृष्ठ 843. 2. अष्टाध्यायी, 2/1/51. 3. वही, 5/4/106. 4. वही, 5/4/92.
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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