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________________ 97 यह सब बातें महा नहीं होते हैं । अतः वार्तिक का आरम्भ करना चाहिए । भाष्य में स्पष्ट है। वस्तुतस्तु भाष्यकार ने इस वार्तिक का प्रत्याख्यान कर दिया है । ही वार्तिक की उपयोगिता नहीं है । वर्ण का एकदेश वर्ण ग्रहण से ग्रहीत होता है । इस पक्ष में तो स्पष्ट "कार" घटक 'रेफ' को निमित्त मान कर 'मातृणा' में 'णत्व' नहीं हो सकता क्योंकि मध्यवर्ती 'अजू भक्ति' का 1 व्यवधान है । 'कार के मध्यभाग में 'रेफ' होता है और उसके दोनों तरफ 'अच्' भाग होता है । वह 'अच्' भाग स्वतंत्र 'अंचू' की अपेक्षा विजातीय है । अतः 'अड्ग्रहण' से ग्रहीत नहीं हो पाएगा । 'अकुप्वाड ' इत्यादि सूत्र से भी 'णत्व' नहीं सिद्ध हो पाएगा । अतः वार्त्तिक करना चाहिए यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि 'अट कुप्वाइव्यवाये पि । इससूत्र में 'व्यवाये' ऐसा जो विभाग करके 'रकार' 'शकार' के परे 'नकार' को 'णत्व' होता है । यत्कंचित् व्यवधान में यह अर्थ माना जाता है । दूसरा योग 'अंदकुप् वाइ. नुम भिः ' नियमार्थ मान लिया जाता है । इसका अर्थ है 'अंडादि' अक्षर 'समामनायिक' वर्णों के व्यवधान में 'गत्व' होता है अन्य के व्यवधान में नहीं होता है । इस नियम अादि से अतिरिक्त 'वर्णतमामनायस्थ' वर्ण के व्यवधान की ही व्यावृत्ति होती है । कार घटक अच भाग अक्षर समामनायस्थ नहीं है । अतः 'व्यवाये' इस पूर्वयोग 'मातृणां ' इत्यादि प्रयोगों में 'णत्व सिद्ध हो जाता है । अतः वर्णैकदेश ग्रहण पक्ष में वार्तिक की आवश्यकता नहीं है । वर्णैकदेश के अग्रहण पक्ष 1. Hoc Tearat, 8/4/2.
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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