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________________ फूलोंका गुच्छा। इस प्रसन्नताके बीचमें युवराजके हृदयमें चिन्ताका भी उदय हो आया। सन्धिका प्रस्ताव अनुमोदित हुआ या नहीं, और विश्ववर्माको गान्धारकी ओर कुछ समय पीछे भेजनेमें कुछ हर्ज तो नहीं होगा, यही उनकी चिन्ताका विषय था। . ७ हूण-संवाद । विश्ववर्माने युवराजसे कहा-" महाराजके आदेशकी उपेक्षा करके यहाँ बैठे रहना मुझे पसन्द नहीं । जब सन्धिका प्रस्ताव अनुमोदित हो गया है तब आप सन्धि स्थापित करके राजधानीको चले जाइए। मैं केवल एक नौकरको लेकर गुप्त वेशसे गान्धारकी ओर रवाना होता हूँ।" यद्यपि विश्ववर्माकी बातको टाल देना असंभव था; तो भी युवराजने कहा-“इस विषयमें मैंने एक दूसरा प्रस्ताव किया है, उसके लिए कुछ दिनों और ठहर जानेमें क्या हानि है?" विश्ववर्माने कहा-“युवराज, महाराजने बहुत कुछ सोच विचार कर यह आज्ञा दी है, उसका पालन न करके दूसरे प्रकारका प्रस्ताव करनेसे कर्मभीरुता प्रकट होगी । इसके सिवा जिस कामके लिए यह आज्ञा हुई है उसका गुरुत्व और महत्त्व हमें स्वयं अनुभव हो रहा है। उस दिन श्रमणकुमार जावने जो कुछ कहा था उससे भी मालूम होता है कि अवश्य ही हूणोंका प्रभाव बढ़ रहा है। इस लिए इस समय व्यर्थ समय खोना एक प्रकारका राजद्रोह करना है।" युवराजने विषण्ण चित्तसे कहा-“अच्छा, तुम्हारी इच्छा । " इन शब्दोंके कहने में युवराजको बहुत कष्ट हुआ । विश्ववर्मा युवराजसे विदा लेकर एक वृक्षकी छायामें जाकर बैठ गये और आकाशमें तारागणोंकी ओर देखते हुए विचार करने लगे । विश्ववर्माने टालिमीके ग्रन्थोंका अध्ययन किया था-अनेक नक्षत्रोंको वे अच्छी तरह पहचानते थे। इस लिए जब वे आकाशकी ओर देखते हुए बैठते थे तब उनके इस काममें कोई वाधा नहीं डालता था। कुछ समयके बाद विश्ववर्माने उस महामहिमामयको सजल नयन होकर नमस्कार किया जो सारे नक्षत्रोंका पति और सारे मनुष्योंके भाग्यका नेता है । यद्यपि मेलिनाको छोड़कर और किसीको भी यह बात मालूम नहीं थी, तो भी यहाँ साफ साफ कह देनेमें कुछ हानि नहीं है कि विश्ववर्माका चपलाकी आनन्दमयी प्रतिमापर अतिशय अनुराग हो गया था । कर्तव्यके
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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