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________________ अपराजिता। रहता था । वसन्त कुसुमके फूलोंके गाड़े रंगसे उनकी ओढ़नी रँग देता था; रुखमंडलीके फूलोंको मसलकर चरण रँग देता था-मेंहदीके पत्तोंके रससे हाथ रंग देता था और मधुर हास्य, प्रिय वचन, तथा चाहभरी चितवनसे उनके हृदयको रँगनेकी चेष्टा करता था । उन सुन्दरियोंका हृदय उससे रँगता था कि नहीं, कौन जाने; परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उन युवतियोंके अफीमके फूलके समान लाल, और मादक ओंठ, अनारके फूलसदृश गाल, कुसुमरंगके वस्त्र, और मेंहदीरंजित चरण अपनी सारी लालिमा एकत्र करके वसन्तके कोमल हृदयको रुधिरके रंगसे रँग देते थे । तरुणियां वसन्तसे जितनी अन्तरंगता बढ़ाती थीं, वसन्त अपने अन्तरके मध्यमें उतनी ही शून्यता अनुभव करता था और धीरे धीरे उस सारी शून्यताको पूर्ण करके वह किसी एकको अपने जीवनमन्दिरमें आह्वान करनेके लिए अधीर हो जाता था। एक दिन जब संध्याके समय प्रत्येक वृक्षपर फूलोंके चँदोवे तन रहे थे, दक्षिण-वायु विरह-मूछितोंकी निःश्वासके समान रह रह कर फूलोंके वनमें कँपकँपी उत्पन्न करती थी, फूलोंकी गंधसे मत्त होकर कोकिल और पपीहा प्रलाप करते थे और हजारों दीपोंकी शिखाओंके बीच फब्बारोंका जल हीरेकी मालाओंके समान पड़ता था, तब वसन्तके प्रेमसंगीतको बन्द करके राजकुमारी इन्दिरा साक्षात् लक्ष्मीके समान उसकी झोपड़ीके द्वारपर आकर खड़ी हुई । वसन्त तत्काल उठ खड़ा हुआ और फूलोंसे भरे हुए एक दौनेको उसके चरणोंके आगे औंधाकर बोला-इन्दिरा, तुम बाहरके फूलोंको तो नित्य ले जाती हो, मेरे अन्तरका अतुलनीय फूल क्या तुम्हारे चरणोंमें स्थान नहीं पायगा ? और यह फूलोंका वन विवाहोत्सवसे क्या और विशेषरूपसे प्रफुल्लित नहीं होगा? कुमारी इन्दिरा भौहें चढ़ाकर और फूलोंको घृणापूर्वक पैरोंसे कुचलकर बिजलीके समान कड़ककर बोली-एक नीच मालीका इतना बड़ा साहस ! क्यों रे, अनुग्रहको तू प्रणय समझता है ? तुझे एक राजकन्याको अपनी झोपड़ीमें रखनेका शौक चर्राया है ! क्या तू नहीं जानता है कि मेरे पाणिग्रहणके लिए कर्नाटकनरेश जैसे महाराजा याचक हुए हैं ? तेरा यह सब
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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