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________________ - फूलांका गुच्छा। एतानि तानि वचनानि सरोरुहाक्ष्यः कर्णामृतानि मनसश्च रसायनानि॥ इसी समय द्वारपालने आकर खबर दी कि राजकुमार भद्रमुख सन्धिका प्रस्ताव लेकर आये हैं। झल्लकण्ठ उठकर बाहर गया और भद्रमुखको आदरपूर्वक भीतर ले आया। दोनों अपने अपने आसन पर बैठ गये। भद्रमुखने कहा"आप अपना राज्य ले चुके-आपकी इच्छा पूर्ण हो गई, अब इच्छा हो तो आप सन्धि कर लें । मैं सन्धि करके शान्तिता और मित्रतासे रहनेके लिए तैयार हूँ।" ___ झल्लकण्ठने कहा-"राजकुमार आप तैयार हैं, परन्तु मैं तैयार नहीं। मैंने इस कार्यमें बड़ी हानि सही है और अशान्ति भी बहुत भोगी है। मैं उसका पूरा पूरा बदला लिए बिना न रहूँगा। यह बदला आपकी बहिन भद्रसामा है जिसने कि मुझे पहले युद्ध में हराया था। जबतक मैं उसे न पालँगा, तब तक मेरा बदला नहीं चुक सकता।" भद्रमुख बोला-'नहीं नहीं, मंत्री, तुम भूलते हो। सच्चा बदला, लो यह है मेरे पास !" यह कहकर उसने अपनी आस्तीनसे छुपी हुई कटार निकालकर झल्लकण्ठकी छातीमें भोंक दी और वहाँसे वह वायुवेगसे भागकर निकल गया ! ___ इतनेहीमें द्वारपालने आकर खबर दी कि राजकुमारी भद्रसामाका दूत आया है। मरणोन्मुख मंत्रीने कहा-"आने दो, आने दो । उस चण्डीका दूत क्यों आया है ?" यह कहते कहते उसे मूछी आगई। द्वारपाल घबड़ाकर चिल्ला उठा। बातको बातमें हजारों आदमी एकटे हो आये। दूत भी भीतर आया। थोड़ी देर में मंत्रीने आँख खोली। उसने सब लोगोंको 'बाहर जानेकी आज्ञा देकर दूतको अपने समीप बुलाया। दूतने पूछा- "आपकी यह दशा किसने की ?" मंत्रीने कहा-“मेरे भाग्यने अर्थात् राजकुमार भद्रमुखने।" दूत बोला-“वह बड़ा कायर निकला । वीरोंका तो यह काम नहीं है।" कण्ठगतप्राण झलकण्ठने कहा-'यह भी मेरे ही भाग्यका दोष है । अपने 'कर्तव्यसे भ्रष्ट होकर मैंने अपने स्वार्थके लिए अपने स्वामीका राज्य बेच दिया था, यह मुझे उसीका फल मिला है-उसीका प्रायश्चित्त है। पर अब इन बातोंका क्या फल होगा ? तुम अपनी बात कहो कि किसलिए आये हो।"
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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