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________________ फूलोंका गुच्छा। मैं शान्त हुई और मैंने इस विषयका अच्छीतरह विचार किया, तब मुझे मालूम • हुआ कि मैंने अपनी ढिटाईसे जो कुछ किया है, वह अनुचित है। मेरी इस ढिटाईको आप क्षमा कर दें।" वाक्यवाणोंसे विद्ध हुआ झल्लकण्ठ, कुछ समयतक राजकुमारीके लावण्यललित मुखकी ओर देखता रहा । उसने देखा कि उसके मुखपर करुणा श्रद्धाका लेश नहीं, खनके पानीके समान उसका विचार स्थिर है । वह निराश होकर वहाँसे चल दिया और कदलीकुंजकी मधुर शीतल छायामेंसे भी अपने विरहतप्त हृदयको विना शान्ति पहुँचाये ही बाहर हो गया। इधर वह गया और उधर भद्रसामाके दृढ निश्चयका दुर्ग फिसल पड़ा । उसके हृदयमें तीव्र वेदना होने लगी । वह आपेमें न रही और विक्षिप्तोंके समान चेष्टा करने लगी। अपने मस्तकके पुष्पमुकुटको उसने तोड़मरोड़कर फेंक दिया। इसके बाद वह अपनी कंचुकीमेंसे मन्त्रीकी प्रणयपत्रिका निकालकर उसका बार बार चुम्बन करने लगी और बारबार उसे मस्तकसे लगाने लगी। उसकी आखोंसे आँसुओंकी अविरल धारा बहने लगी। वह आप ही आप कहने लगी-"आओ प्यारे, आओ, मैं तुम्हारे अपमानका बदला चुकाऊँगी । हे देव, कृपा करके फिर पधारो। मैं प्रेमश्रद्धाके चन्दनसे तुम्हारी पूजा करूँगी । इस हृदयमन्दिरको मैंने सब प्रकारसे तुम्हारे योग्य बना लिया हैं, उसके प्रेमसिंहासनपर तुम्हें विराजमान करूँगी । हे मनोहर, आओ ! मैं अपने यौवन-वसन्तकी प्रथम पुष्पांजलि तुम्हारे चरणोंमें अर्पण करूँगी। अहो अभिमानी प्रियतम, आओ! आओ ! कहाँ जाते हो ? तुम्हारे बिना मुझे यहाँ शून्य ही शून्य दिखता है । हे सन्तापहार, मेरे अन्तरको शीतल करो। हे प्राणेश्वर, लौट आओ ! लौट आओ !" राजकन्याका विलाप सुनकर उसकी सखी पुष्पिका उधरको दौड़ी हुई गई जिधरसे झल्लकण्ठ गया था। उसे देखते ही वह पुकारकर बोली, “ मन्त्री महाशय, राजकुमारीजी आपके लिए रो रो कर व्याकुल हो रही हैं; इस लिए आप लौटिए, जल्दी लौटिए !" चन्द्रमाकी शीतल किरणोंसे जिस प्रकार सागर उछलता है, उसी प्रकार झल्लकण्ठका हृदय हर्षसे उछलने लगा। वह तुरन्त ही लौटा और पुष्प
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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