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________________ फूलोंका गुच्छा। अपराजिता। (१) कुछ दिनोंसे काशीराजके अन्तःपुरके उद्यानमें एक नवीन माली आया है। वह अपना नाम वसन्त बतलाता है । वह रूप और गुणोंमें ऋतुराज वसन्तसे "किसी प्रकार कम नहीं। एक दिन वसन्तऋतुके प्रभातमें जब एक बे-जानपहिचानका तरुण पुरुष राजसभामें नौकरीकी इच्छासे आकर खड़ा हुआ, तब उसे देखकर सभासदोंका ईर्षाकुटिल मन प्रीतिरससे अभिषिक्त हो गया, वृद्ध मंत्रीका संदिग्ध पर गंभीर चित्त स्नेहस्पर्शसे चंचल हो उठा, राजाके नेत्र प्रशंसापुलकसे विस्फारित हो गये और राजसभाकी एक ओर चमकीली चिकोंकी आड़में बैठी हुई युवतियोंके चंचल चक्षु स्थिर हो रहे । राजाने उसे आदरपूर्वक सभामें बिठाकर पूछा-हे युवक, तुम कौन हो? तुमने किस देशके किस परिवारको अपने जन्मसे सुखी किया है ? तुम्हारा शरीर कुसुमके समान सुकुमार और सुन्दर है, तुम क्या काम करोगे ? तुम्हें कोई भी काम न करना होगा, तुम हमारी राजसभाको ही निरंतर आनन्दित किया करो। - वसन्तने मूर्तिमान् विनयके समान मस्तक नबाकर धीरता और दृढ़तासे कहा-महाराज, जिस पुरुषको कोई काम नहीं, उसके क्लेशका कोई ठिकाना नहीं । कृपा करके उस क्लेशसे आप मेरी रक्षा करें-मेरी सामान्य शक्तिको आप अपनी ही किसी सेवामें लगावें । राजाने प्रसन्न होकर कहा-अच्छा युवक, कहो तुम्हें कौनसा काम अच्छा लगता है ? मंत्री, सेनापति, सभाकवि आदि जो कोई तुम सरीखा सहकारी पायगा सुखी होगा। बतलाओ, तुम्हें कौनसा काम पसन्द है ? - वसन्तने हाथ जोड़कर कहा-महाराज, मैं असमर्थ हूं । किसी बड़े कार्यके भारको नहीं उठा सकूँगा । मेरी इच्छा है कि मैं महाराजके खास
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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