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________________ विचित्र स्वयंवर। wwww w wwwww किन्तु भिक्षुका कहीं पता न था। उस झञ्झावायुसे क्षुब्ध अरण्यमें केवल यही प्रतिध्वनि सुन पड़ी "भिक्षु, तुम कहां हो!" (८) कुमार नायकसिंह आकाशकी अवस्था देखकर घोड़ेसे उतर पड़े और एक बड़े भारी पत्थरके सहारे खड़े हो रहे । इस समय उनका चित्त उदास था। इतने में ही बिजली चमकी। उन्होंने देखा कि सत्यवती उनके पासहीसे भागी जा रही है। वे उसे रोक कर बोले,-"सुन्दरी, मैंने एक वीरवंशमें जन्म लिया है । अपने जीवनमें मुझे बुरे दिन और भले दिन, रणभूमि और रंगभूमि सब ही कुछ देखनेका अवसर मिला है । इससे कहता हूं कि इस अँधेरी रातमें यह कंटकमय और पथरीला रास्ता तुम जैसी अबलाओंके लिए घरका आँगन नहीं है। तुम भागनेका प्रयत्न मत करो।" ___ कुमार नायकसिंहको अङ्गदेशमें प्रायः सब ही जानते थे। सत्यवती भी उन्हें पहचान गई, इसलिए खड़ी हो रही और आँखोंमें आँसू भरकर हाथ जोड़कर बोली, “कुमार, मैं अनाथा हूं। मुझे तुम भले ही कैद कर लो; परन्तु भिक्षु शरण भैयाको छोड़ दो।" कुमार-उन्हें छोड़ देनेका अधिकार तो मन्द्राको है। हां, मैं तुम्हें अवश्य ही छोड़ सकता हूं। छोड़ देने में कुछ हर्ज भी नहीं है, क्यों कि तुम भागना नहीं जानतीं। पीछेसे किसीने कहा, “ नहीं, कभी न छोड़ना। यह रमणी मेरी प्रणयिनी है।" लाला किशनप्रसादने युद्धस्थलमें अपनी बहादुरीकी हद दिखलानेके लिए थोड़ी सी शराब पी ली थी। आप कुछ पास जाकर बोले, “सत्यवती, तुम्हारा दास तुम्हारे सामने खड़ा है।" सत्यवतीने कातर स्वरसे कहा-"कुमार, मुझे बचाओ।" "तुम्हें बचानेकी किसीमें शक्ति नहीं है !" यह कहकर लाला साहबने सत्यवतीका हाथ पकड़ लिया । कुमार नायकसिंहने सोचा, इस समय इसकी लात घूसोंसे पूजा करना ही विशेष फलप्रद होगा और विना कुछ कहे सुने उन्होंने ऐसा ही किया । फू. गु. ४
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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