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________________ ४६ फूलांका गुच्छा। मन्द्रा-बड़ा भारी अपराध है । उसको कठिन दण्ड देना चाहिए। किशनप्रसाद चला गया । आधीरातका वक्त है। भिक्षु देवदत्तके घर ध्यानमें मग्न हो रहा है। इतनेमें सत्यवतीने धीरेसे आकर किवाड़ खोले और दुःखभरे कण्ठसे कहा, "शरण भैया!" भिक्षुने आँखें खोलकर कहा, “क्यों सती ?" सत्यवती-शरण भैया, मैं तुमसे एक बात न कह पाई थी। आज किशनप्रसाद मुझे तुम्हारे पाससे छीन ले जायगा। भिक्षु-(विस्मित होकर ) इसका क्या मतलब है ? यह मैं जान गया हूं कि किशनप्रसाद दुराचारी पुरुष है; परन्तु उसे तुम्हें छीन ले जानेका क्या अधिकार है ? सत्यवती-किशनप्रसाद मेरे साथ विवाह करना चाहता था; परन्तु उसकी इच्छा पूरी न हुई, इसलिए आज रातको वह मुझे जबर्दस्ती ले जायगा। इस संकटसे बचनेका सिवा इसके और कोई उपाय नहीं दिखता कि इस देशको ही छोड़ देना । भैया, इस देश में धर्म नहीं है । मैं तो अब संन्यासिनी हो जाऊंगी और बुद्ध भगवान्की शरण लेकर घरघर भीख मांग कर अपना जीवन व्यतीत करूंगी। भिक्षुने उस कोठरीके टिमटिमाते हुए दीपककी ओर देखकर एक लम्बी सांस ली और कहा, “अच्छा, भगवान्की इच्छा पूर्ण हो। संन्यासिनी बहिन, तो अब तुम तैयार हो जाओ। यह तो तुम्हें मालूम है कि जंगल बड़ा दुर्गम है । क्या तुम मेरे साथ दौड़ सकोगी ?" ___ सत्यवतीके हृदयमें एक अलक्षित शक्तिका संचार हो रहा था। उसने आनन्द और उत्साहसे कहा, " जंगल क्या चीज है, मैं नदी और पर्वतोंको भी सहज. ही पार कर जाऊंगी।" सारा नगर घोर निद्रामें मग्न था। चारों ओर सन्नाटा खिंच रहा था। रास्तोंपर एक भी मनुष्य न दिखलाईदेता था । भिक्षु सत्यवतीके साथ देवदत्तके घरसे चल दिया। रात ढल चुकी थी। राजकुमारी मन्द्रा चम्पागढ़के सिंहद्वारको पार करके ठहर गई। वह एक शीघ्रगामी घोड़े पर सवार थी और हाथमें धनुर्बाण लिये
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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