SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ wmmmmmmmmm फूलोंका गुच्छा। भिक्षुकका न सिर मुंड़ा था और न उसके हाथमें कमण्डलु था। एक सफेद चद्दरसे उसका सारा शरीर ढंका हुआ था, इसलिए यह न मालूम होता था कि वह बालक है या युवा, मोटा ताजा है या दुर्बल । __उसकी दृष्टि वैराग्यपूर्ण थी और आकार रहस्यमय था। उसके सिरके बाल कुछ कुछ जटाओंका रूप धारण कर रहे थे । उसके मोतियों के समान दाँतोंके बीचमें तुषार जैसी हँसीकी रेखा झलकती थी और प्रशस्त ललाटमें चिंताकी कुछ कुछ सिकुड़न पड़ रही थी। उसका रंग उज्वल और प्रकाशमान था। भिक्षुने धीरे धीरे भीतर पहुँच कर कहा, "सबका कल्याण हो।" शब्दके होते ही उस विशालभवनके हजारों तन्द्रापूर्ण नेत्र उसके ऊपर जा पड़े। निद्रामें एकाएक बाधा पड़ जानेसे राजा सत्यसेनको बड़ा ही क्रोध आया। वे बोले “यह आदमी चोर है।" भिक्षुने दोनों हाथ उठाकर कहा, "आपका कल्याण हो ।" तब मन्द्राने पिताके कानमें कुछ कहकर, सर्पिनीके समान क्रुद्ध होकर . पूछा, “ तुम किस राज्यके प्रजाजन हो ?" भिक्षु-विश्वराज्यके। मन्द्रा—मालूम होता है कि तुम कोई स्वांगधारी डांकू हो । भिक्षु-कल्याण हो। मन्द्रा-कल्याण कौन करेगा ? भिक्षु-जीव अपना कल्याण आप ही करता है। मन्द्रा-मैं तुम्हारा परामर्श ( सलाह ) रूप ऋण नहीं लेना चाहती। भिक्षु-मैं ऋण नहीं देता, दान करता हूं। मैं देखता हूं कि इस विशाल राज्यमें शक्तिपूजाकी तैयारी हो रही है जो कि बहुत ही घृणित और हत्याकारी कार्य है । यह सृष्टिकी बाल्यावस्थाकी अज्ञानजन्य क्रियाके सिवा और कुछ नहीं है। आप ज्ञान लाभ करके इसे छोड़ दें।। __ प्रधान मन्त्री बोला, “यह कोई बौद्ध भिक्षु है । " सेनापति रुद्रनारायणने कहा, "इसको बाँधकर शूली पर चढ़ा देना चाहिए।"
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy