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________________ फूलोंका गुच्छा। - इसके बाद ही कुमारीकी देवभक्ति बढ़ उठी । वह दोनों समय मंदिरको आने लगी और कभी कभी तो वह अपनी दासियोंको भी साथ लाना भूल जाने लगी! एक दिन संन्यासी मन्दिरकी सीढ़ियोंपर बैठकर बायें हाथसे नेत्रोंको बंदकरके मानस-पूजामें मग्न हो रहा था। उसी समय कुमारी धीरे धीरे उसके पास आई। उस समय तक सायंकालकी आरतीके लिए मंदिरका द्वार न खुला था। संन्यासीका ध्यान भंग हो गया। उसने नम्रस्वरसे कुमारीसे कुशलप्रश्न किया । कुमारीने कहा- “मैं संन्यासधर्म ग्रहण करूंगी और आपकी शिष्या होऊंगी।" कुमारी सचमुच बड़ी प्रगल्भा है । इसके पीछे उन दोनोंकी क्या बातचीत हुई; सो तो हम नहीं कह सकते; परन्तु इतना हम अवश्य कहेंगे कि देवमंदिरका द्वार मुक्त होनेके पहले ही उन दोनोंके हृदय द्वार मुक्त हो चुके थे। इसके दूसरे दिन संन्यासी युवकने राजसभामें प्रस्ताव पेश किया कि मैं पुरोहित होकर कुमारी कञ्छुकाका विवाह बुन्देलखण्ड के राजा हर्षदेवके साथ करना चाहता हूं। राजाने इसे स्वीकार कर लिया । संन्यासी लूनीरके जलमें स्नानादि नित्यकर्म समाप्त करके अजमेरसे यद्यपि प्रस्थानित हो गया; परन्तु यह बात उसके मनमें घूमती ही रही कि लूनीरका जल बहुत निर्मल और बहुत ही शीतल है। ३ युद्धक्षेत्रमें। यह चिरकालकी रीति है कि सन्धि न होनेसे युद्ध करना पड़ता है। चन्देलपति हर्षदेवने बुन्देलखंडको भारतवर्षका केन्द्र बनानेका निश्चय करके छोटे छोटे राजाओंके साथ अनेक युद्ध किये। कई स्थानोंमें विजय प्राप्त करनेके पश्चात् चेदिवंशीय-कलचुरि राजाओंके साथ युद्ध प्रारंभ हुआ। इस समय गर्वोन्मत्त मुग्धतुंग प्रसिद्धधवलका स्वर्गवास हो चुका था । उसका पुत्र बालहर्ष राजा था। मध्यप्रदेशका वर्तमान सागर जिला चेदिराज्यका प्रधान स्थान था। बुन्देलखंडकी दक्षिण सीमापर सागर जिलेके उत्तरीय भागमें शाहगढ़ नामक नगरमें उभय पक्षका संग्राम हुआ । एक दिन युद्धयात्रा होनेके पहले रानी कञ्छुकाने स्वप्नमें देखा कि एक प्रकाशमय मेघके टुकड़ेपर राजा विराजमान हैं और रानी जितनी ही बार राजाके चरणोंका स्पर्श करनेके
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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