SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फूलोंका गुच्छा। - "इसलिए कि, वह हतभागिनी है। जिस समय वह आपके पास गई थी, उस समय आपने उससे कुछ भी न कहा था । केवल अपनी व्यथासे व्यथित करके उसे आपने बिदा कर दिया था।" वसन्तका मन सुख और दुःखमें डूबने उतराने लगा। उसने उत्तेजित स्वरसे कहा--तो वह इस समय मुझे देखनेके लिए क्यों न आई ? • सुभद्राने कुछ ऊंचे उठकर अपनी स्वच्छ और सुन्दर दृष्टिको ताखमेंसे डालते हुए कहा--वह आपके देखनेके लिए बराबर आती है; परन्तु बेचारी बड़ी ही लज्जालु और साहसहीन है। इसलिए अपनेको आपके सामने प्रकाशित नहीं कर सकती। मैं उसीकी इच्छासे आपकी सेवा करती हूं। वसन्तने प्रफुल्लित होकर सुभद्राके हाथोंको और भी गाढ़तासे पकड़कर कहा-भद्रे, तुम्हारी बातें सुनकर मुझे अब फिर जीनेकी लालसा होती है। क्योंकि संसारकी सारी स्त्रियां इन्दिरा, शुक्ला, आनन्दिता ही नहीं हैं; उनमें यमुना और सुभद्रा जैसी भी हैं। भद्रे, मैंने यमुनाको देखी तो थी; परन्तु यह न समझा था कि वह ऐसे उत्तम स्वभावकी होगी । तुम्हें देखा नहीं है, तो भी समझ लिया है कि तुम्हारा अन्तरंग कितना सुन्दर है। यमुनाको कुरूप देखकर मैंने जो उसका अनादर किया था, मुझे उसकी लज्जा आज उसकी दयाके कारण असह्य हो गई है। तुम उससे इस रूपलोलुपकी अविनय क्षमा करनेके लिए प्रार्थना करना और भद्रे, तुम यदि मुझे ग्रहण करनेकी कृपा करो, तो मैं बच सकता हूं। इस अन्ध कारागृहसे मैं सहज ही बाहर हो सकता हूं। सुभद्रा बोली—मैं भी तो यमुनाहीके समान कुरूपा और श्रीविहीना हूं। वसन्तने उत्तेजित स्वरसे कहा-हो, तुम्हारा रूप काला और शोभाहीन हो, तो भी वह मेरे लिए नयनाभिराम होगा। जिसके ऐसे दुःखापहारी हाथ हैं, ऐसा सदय हृदय है और ऐसा विनयनम्र मधुर कंठ है, उसके सौन्दयकी सीमा. नहीं है-उसकी तुलना सारे जगतमें नहीं मिल सकती। सुभद्राने कहा-तुमने मेरा कुछ परिचय तो पूछा ही नहीं । __ वसन्त बोला-मैं अब तुम्हारा कुछ भी परिचय नहीं चाहता । एकः बार इस बाहरी परिचयके प्रपंचमें पड़कर मैं यमुनाका अपराधी बन चुका हूं। तुम्हारा अन्तरंग परिचय ही मेरे लिए यथेष्ट है। इतना ही जानना बस.
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy