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________________ फूलोंका गुच्छा। करते रहने के सिवा और कोई शांतिका उपाय न था । खानेको देनेका द्वार इतनी ऊंचाई पर था कि उसमेंसे बाहरका मनुष्य भीतर और भीतरका मनुष्य बाहर न देख सकता था। केवल हाथ डालकर भोजन देना और लेना बन सकता था। भोजनका पात्र खाली करके ताखके ऊपर रख देनेकी व्यवस्था थी। जिस दिन पात्र खाली न होता था, उस दिन समझ लिया जाता था कि कैदी पीडित है और सात दिन बराबर इसी तरह पात्र खाली न होनेसे विश्वास कर लिया जाता था कि कैदी भवयंत्रणासे मुक्त हो चुका है। वसन्त इसी भीषण कारागारमें रक्खा गया । उसकी सारी आशा आकांक्षाओंकी जननी पृथ्वी, उसके प्रेमके स्थान सारे सुन्दर मुख और उसके चन्द्र, सूर्य, प्रकाश, आकाश, पुष्प, पवन आदि संपूर्ण प्यारे पदार्थ सदाके लिए लोह“कपाटोंकी आड़में लुप्त हो गये । बाहरका हर्षकोलाहल अवश्य ही उसके कानों तक पहुँचता था; परंतु उसकी ओर उसका ध्यान ही न रहता था। वह अपने 'निष्फल प्रणयके शोकमें इस प्रकार मान रहता था कि उसका उक्त कोलाहलकी ओर लक्ष्य ही न जाता था। सुन्दरी राजकुमारियां कारागारके समीप आकर ताखके पाससे हँसहँसकर कहती थीं,-क्यों जी वरमहाराज, ससुरालमें आज कैसा आनंद आ रहा है ! रसिक मालाकार, हम तुम्हारे लिए वरमाला लेकर आई हैं, लो इसे ग्रहण करो ! इसके पश्चात् वे कांटोंकी मालाको वसन्तके आगे फेंककर खूब खिलखिलाकर हँसती थीं। उनकी वह कांटोंसे भी अधिक तीखी और निष्ठुर हँसी उनके पीछे रहनेवाली यमुनाके हृदयमें शूलसी "चुभती थी। . परन्तु राजकुमारियोंका यह दुर्व्यवहार वसन्तको अधिक पीड़ा न दे सकता था । क्योंकि उनका प्रथम व्यवहार ही ऐसा मर्मभेदी हुआ था कि उसके पीछेकी इस नूतन वेदनाका उसे अनुभव ही न होता था। वसन्त बहुत कुछ विनय अनुनय करके कारागारमें अपनी वीणाको भी ले आया था। अंधकारमें बैठकर जब वह अपनी उस एक मात्र प्रण"यिनीको हृदयसे लगाकर उसके प्रत्येक तारसे अपनी हार्दिक वेदना व्यक्त करता था, तब सारी राजपुरी विषादसागरमें मग्न हो जाती थी। उस
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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