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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज जय और पराजय राजा उदयनारायणकी कन्या अपराजिताको उनके सभा-कवि शेखरने कभी अपनी आखोंसे नहीं देखा। किन्तु जब कभी वे किसी नवीन कान्यकी रचना करके सभासदों को सुनाते, तब इतनी ऊँची आवाजसे पढ़ते, कि वह रचना उस ऊँचे महलके ऊपर झरोंखोंमें बैठी हुई अदृश्य श्रोत्रियों के कानों तक पहुँचे बिना नहीं रहती। मानो वे किसी एक ऐसे अगम्य नक्षत्र-लोकके उद्देश्य से अपना संगीतोच्छ्वास प्रेरित करते, जहाँ तारागणों के बीच उनके जीवनका एक अपरिचित शुभग्रह अपनी अदृश्य महिमा विस्तृत करता हुआ सुशोभित था। कभी वे छायाके समान कुछ देखते, कभी बिछुअोंकी झन्कारके समान कुछ सुनते, और तब बैठे-बैठे मन ही मन सोचते कि वे दोनों चरण कैसे सुन्दर होंगे जिनमें वे सोनेके बिछुए बंधे हैं, और ताल देकर गाते हैं । वे दोनों लाल और शुभ्र कोमल चरण-तल प्रत्येक डग पर न जाने
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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