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________________ ७७ जासूस साथ एक ही जगह घूम फिर रहा था । उसे देखकर मुझे जरा भी सन्देह न रहा कि यह किसी गुप्त षड्यन्त्रकी तैयारी कर रहा है । मैंने अन्धेरे में छिपकर अच्छी तरह उसका चेहरा देख लिया । वह जवान था और देखने में सुन्दर भी । मैंने मन-ही-मन कहा - दुष्कर्म करने के लिए ऐसा ही चेहरा तो उपयोगी होता है । जिन लोगोंका चेहरा स्वयं उनके ही विरुद्ध गवाही दिया करता है, उन्हें तो मानो हर तरह सब प्रकारके अपराधों से बचकर ही चलना पड़ता है । वे सत्कार्यों में तो सफल होंगे ही कैसे, दुष्कर्मों में सफलता प्राप्त करना भी उनके लिए कठिन होता है । देखा कि इस छोकरेका चेहरा ही उसका सबसे बड़ा हथियार है । इसके लिए मैंने उसकी मन ही मन खूब प्रशंसा की और कहाभैया, तुम्हारे लिए भगवानने जो दुर्लभ सुभीता कर दिया है, उससे तुम्हें पूरा पूरा फायदा उठाना चाहिए; वास्तविक प्रशंसा के पात्र तुम तभी होगे । aaree froलकर उसके सामने आ गया और उसकी पीठ पर हाथ रखकर बोला- कहो, अच्छे तो हो ? वह एकाएक चौंक उठा और उसका चेहरा फीका पड़ गया । मैंने कहा- माफ कीजिए, भूल हो गई, मैंने आपको भूलसे कुछ और समझा था ! पर मन ही मन कहा - भूल जरा भी नहीं हुई है, तुम्हें जो समझा था, तुम वही निकले हो ! किन्तु इस तरह बहुत अधिक चौंक उठना उसके लिए ठीक नहीं हुआ। अपने शरीरपर उसका और भी अधिक काबू होना चाहिए था, किन्तु श्रेष्ठताका सम्पूर्ण आदर्श अपराधी श्रेणी में भी विरल होता है । कर देखा कि वह त्रस्त होकर वहाँ से चल दिया है । मैंने भी उसका पीछा किया । देखा कि वह गोलदिग्धीके भीतर जाकर पुष्करिणी के किनारे तृणशय्यापर चित लेट गया है। विचार किया कि उपाय सोचने के लिए सचमुच ही यह उपयुक्त स्थान है। गैस पोस्ट के नीचेकी जगह से तो यह कहीं अच्छा है । यहाँ यदि लोग कुछ सन्देह करेंगे भी,
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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