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________________ ७५ जासूस करके अपने अन्दर किसी तरह नहीं रख सकते । मकड़ी जो जाल बुनती है, उसमें जल्दी से स्वयं ही सिरसे पैर तक उलझ जाती है । अपराधव्यूहसे बाहर निकलनेका कूट कौशल वे नहीं जानते । श्रतः ऐसे निर्जीव देशमें जासूसीके काम में न तो कोई सुख है और न कोई गौरव । बड़े बाजार के मारवाड़ी जुना - चोरोंको अनायस ही गिरफ़्तार करके मैं मन ही मन कहा करता - अरे अपराधीकुलकलङ्को, दूसरोंका सर्वनाश कर डालना हर किसीका काम नहीं है । इसे चालाक उस्ताद ही कर सकते हैं । तुम जैसे अनाड़ी निर्बोधोंको तो साधु तपस्वी होकर जन्म लेना था ! इसी तरह और अनेक हत्यारोंको पकड़कर उनके प्रति भी मैं कहा करता - गवर्नमेण्टका फाँसीका ऊँचा तख्ता क्या तुम जैसे गौरवहीन प्राणियों के लिए निर्मित हुआ है ? तुम लोगों में न तो किसी प्रकारकी उदार कल्पनाशक्ति है और न कठोर आत्म-संयम । तब समझ में नहीं आता कि तुम लोग किस बिरते पर हत्यारे बनने का साहस करते हो ! जब कभी मैं अपनी कल्पनाकी घाँखोंसे लन्दन और पेरिसके जनाकीर्ण मार्गों के दोनों श्रोरके कुहरेसे ढके हुए गगनचुम्बी महलोंको देखता, तब मेरे शरीर में रोमान्च हो आता । उस समय मैं मन-ही-मन सोचता कि इन महलों की श्रेणियों और पथ उपपथों के बीचसे जिस तरह रात दिन जनस्रोत, कर्मस्रोत, उत्सवस्रोत और सौन्दर्यस्त्रोत बहते हैं, उसी तरह वहाँ सर्वत्र ही एक हिंस्रकुटिल कृष्णकुञ्चित भयंकर अपराध - प्रबाह भी अपना मार्ग बनाकर बहता है; और उसीकी समीपतासे यूरोपीय सामाजिकताकी हँसी-मसखरी और शिष्टाचार ने ऐसी विराट् भीषण रमणीयता प्राप्त की है । परन्तु इधर हमारे कलकत्तेके पथ-पार्श्व के खुली हुई खिड़कियोंवाले मकानोंमें राँधना पकाना, गृह-कार्य, सबक याद करना, ताश खेलना, दाम्पत्य कलह, और बहुत हुआ तो भ्रातृ
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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