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________________ समाप्ति उज्ज्वल करके लघमी बनकर रहना । कोई मेरी बेटीमें कुछ दोष न निकाल सके। मृण्मयी रोते रोते अपने पतिके साथ बिदा हो गई और ईशान उसी द्विगुण निरानन्द संकीर्ण घरमें लौटकर दिनके बाद दिन और मासके बाद मास बिताने और नियमित रूपसे माल तौलने लगे। जब दोनों अपराधी घर लौटकर आये, तब माता अत्यन्त गंभीर होकर रह गई, बोली तक नहीं । किसीको कोई दोष भी नहीं लगाया, जिसको दूर करनेकी वे चेष्टा करें। यह नीरव अभियोग और निस्तब्ध अभिमान सारी गृहस्थीके ऊपर लोहेके बोझके समान अटल भावसे लद गया। जब यह बोझ असह्य हो गया, तब अपूर्वने आकर कहा-माँ, कालेज खुल गये हैं । अब मुझे कानून पढ़ने के लिए जाना होगा। माँने उदासीनताके साथ कहा-बहूका क्या करोगे ? अपूर्वने कहा-उसे यहीं रहने दो। माँने कहा-नहीं बेटा, ऐसा मत करो। तुम उसे अपने साथ ही ले जाओ । माताने आज ही अपूर्वको 'तुम' कहा था ; नहीं तो पहले बराबर वह 'तू' कहा करती थी। अपूर्वने अभिमानसे टूटे हुए स्वर में कहा-अच्छी बात है । कलकत्ते जानेकी तैयारी होने लगी । जानेके दिनसे पहलेवाली रातको अपूर्वने अपनी शय्यापर आकर देखा कि मृण्मयी रो रही है । एकाएक अपूर्व के हृदयपर चोट लगी। उन्होंने विषाद-युक्त कण्ठसे पूछा-मृण्मयी, क्या तुम मेरे साथ कलकत्ते नहीं चलना चाहतीं ?
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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