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________________ २६ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ..... ~~~~~~~~~ ~ कमरेमें जाकर भीतरसे द्वार बन्द करके बिलकुल निराश श्रादमी जिस तरह ईश्वरसे प्रार्थना करता है, उस तरह कहने लगी-बाबूजी, मुझे ले जाओ, यहाँ मेरा कोई नहीं है, मैं यहाँ नहीं बनूंगी।। ' जब रात बहुत बीत गई और अपूर्वकृष्ण सो गये, तब मृण्मयी धीरेसे द्वार खोलकर घरसे बाहर हो गई। यद्यपि बादल घिर घिर आते थे, फिर भी चाँदनी रात थी, इस कारण मार्ग सूझ पड़ने योग्य कानी उजेला था । मृण्मयीको यह ज्ञात नहीं था कि पिताके यहाँ जानेके लिए किस रास्तेसे जाना चाहिए । उसे यह विश्वास हो रहा था कि डाकका हरकारा जिस रास्तेसे जाता है, उस रास्तेसे चाहे जहाँ जाया जा सकता है, इसलिए उसने वही रास्ता पकड़ लिया। चलते चलते शरीर थक गया और रात भी प्रायः समाप्त हो गई । वनके भीतर जब दो चार पक्षियोंने पंख फड़फड़ाकर अनिश्चित सुरसे बोलना प्रारंभ किया और समयका अच्छी तरह निर्णय न कर सकनेके कारण वे चुप हो गये, तब वह उस रास्तेके छोर पर जा पहुँची जिसके आगे एक नदी बह रही थी ; और जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ बाजारकी-सी लंबी चौड़ी जगह थी। वह सोचने लगी कि अब आगे किस ओरको जाना चाहिए । इतने में ही उसे अनेक बारका सुना हुआ 'झमझम' शब्द सुनाई पड़ा और थोड़ी ही देर में कंधेपर चिट्ठियोंका थैला लटकाये हुए डाकका हरकारा श्रा पहुँचा। वह बड़ी तेजीके साथ आ रहा था । मृण्मयी जल्दीसे उसके पास गई और कातर होकर बोली-मैं अपने बाबूजीके पास कुशीगंज जाती हूँ, तुम मुझे अपने साथ ले चलो। वह बोला-कुशीगंज कहाँ है, यह मैं नहीं जानता और फुर्तीसे घाटपर चला गया। वहाँ डाँककी नाव बंधी हुई थी। उसने जल्दीसे मल्लाहको जगाकर नाव खुलवा दी । उसे न दया करने का समय था और न कुछ पूछताछ करनेका ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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