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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज गलेमें पहना दी। सभामें बैठे हुए सभी लोग धन्य धन्य कहने लगे। इसी समय अन्तःपुरसे एक साथ वलय, कंकण और नूपुरोंका शब्द सुनाई दिया। उसे सुनकर शेखर श्रासनसे उठ बैठे और धीरे धीरे सभा-मन्दिरसे बाहर हो गये। कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रि है। चारों ओर सघन अन्धकार है। दक्षिण पवन फूलोंकी गन्ध लेकर उदार विश्व-बन्धुके समान खुले हुए झरोखोंमेंसे घर घरमें प्रवेश कर रहा है। शेखरने अपने सामने, अपनी समस्त पोथियोंका ढेर लगा लिया और उनमेंसे चुन चुनकर अपने रचे हुए ग्रन्थ जुदा कर लिये। बहुत दिनोंकी बहुत-सी रचनाएँ थीं। उनमेंसे बहुत-सी रचनाओंको तो वे स्वयं ही भूल गये थे। उन सबको उलट पलटकर यहाँ वहाँसे पढ़कर देखने लगे। आज उन्हें वह समस्त रचना अकिञ्चित्कर-सी जान पड़ी। उन्होंने लम्बी साँस लेकर कहा-सारे जीवनकी क्या यही कमाई है ? इसमें कुछ उक्तियों, छन्दों और तुकबन्दियोंके सिवाय और है ही क्या ? आज वे यह नहीं देख सके कि उसमें कोई सौन्दर्य, मानवजातिका कोई स्थायी आनन्द, विश्व-संगीतकी कोई प्रतिध्वनि, या उनके हृदयका कोई गम्भीर आत्म-प्रकाश निबद्ध है । रोगीको जिस तरह कोई खाद्य रुचिकर नहीं होता, उसी तरह अाज उनके हाथके निकट जो कुछ अाया, उस सभीको उन्होंने ठुकराकर फेंक दिया। उन्हें इस अँधेरी रातमें राजाकी मित्रता, लोगोंकी प्रशंसा, हृदयकी दुराशा, कल्पनाकी कुहुक आदि सारी बात शून्य विडम्बना-सी लगने लगीं । तब वे प्रत्येक पोथीको फाड़ फाड़कर अपने सामने जलते हुए अग्नि
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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