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________________ दृष्टि-दान १८२ . वे चुप रह गये। मैं भी स्थिर भावसे खड़ी रही। बहुत देर तक घरमें कोई शब्द नहीं हुआ। अन्तमें मैंने कहा-मुझे एक बातका उत्तर दो । कहो कि हाँ, मैं ब्याह करनेके लिए जा रहा हूँ। उन्होंने प्रतिध्वनिके समान उत्तर दिया-हाँ, मैं ब्याह करनेके लिए जा रहा हूँ। ___मैंने कहा-नहीं, तुम नहीं जाने पाओगे। इस महाविपत्ति, इस महापापसे मैं तुम्हें बचाऊँगी। यदि मैं इतना भी न कर सकी, तो फिर मैं तुम्हारी स्त्री ही किस बातकी ठहरी ! मेरी शिव-पूजा और किस काम प्रायगी ! फिर बहुत देर तक घरमें सन्नाटा रहा। मैंने जमीनपर गिरकर और स्वामीके पैर पकड़कर कहा-मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है ? मुझसे किस बातमें भूल हुई है ? तुम्हें किस लिए दूसरी स्त्रीकी पावश्यकता है ? तुम्हें मेरे सिरकी सौगन्ध, सच सच बतलाना। __ इसपर मेरे स्वामीने धीरे धीरे कहा-मैं सच कहता हूँ, मुझे तुमसे भय लगता है। तुम्हारी अन्धताने तुम्हें एक अनन्त श्रावरणमें डॅक रक्खा है। मैं उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। तुम मेरे लिए देवता हो; और देवताके ही समान मेरे लिए भयानक हो। तुम्हारे साथ रहकर मैं नित्य अपना गृहकार्य नहीं कर सकता। मुझे एक ऐसी साधारण स्त्री चाहिए जिसे मैं ब', मर्चे, बिगहू, बनूँ , लाड़ प्यार करूँ, गहने कपड़े पहनाऊँ और इस प्रकारके और सब काम करूँ। मैंने कहा-जरा मेरा कलेजा चीरकर देखो। मैं भी बहुत ही सामान्य स्त्री हूँ। मेरे मनमें नये विवाहकी उस बालिकाके सिवा और कुछ भी नहीं है। मैं विश्वास करना चाहती हू, निर्भर करना
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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