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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज भी अाज हम लोग उस प्रकार एक नहीं हैं-अलग हो गये हैं। स्वामीने हँसकर कहा-बस, परिवर्तन ही तो संसारका धर्म है । मैंने कहा-रुपये-पैसे, रूप-यौवन सभी में परिवर्तन होता है। पर क्या कोई ऐसी चीज नहीं है जो नित्य हो ? इस पर उन्होंने कुछ गम्भीर होकर कहा-देखो, और और स्त्रियाँ अनेक प्रकारके प्रभावोंके कारण दुःख करती हैं-किसीका स्वामी कुछ कमाता नहीं है-किसीका स्वामी प्रेम नहीं करता है। पर तुम बैठे बिठाये दुःखको अाकाशसे खींचकर ले आती हो। उसी समय मैंने समझ लिया कि अन्धता मेरी आँखों में एक नया अंजन लगाकर मुझे इस परिवर्तमान संसारसे बाहर ले गई है। मैं और स्त्रियोंके समान नहीं हूँ, मेरे स्वामी मुझे न पहचान सकेंगे। इसी बीचमें देशसे मेरी एक बुआ सास अपने भतीजेका हाल चाल देखनेके लिए आई । ज्यों ही हम दोनों उसे प्रणाम करने के लिए उठकर खड़े हुए, त्यों ही पहली बात उसने यही कही- बहू, भला तुम तो अभाग्यसे अपनी दोनों आँखें खो बैठी हो, पर अब मेरा अविनाश अन्धी स्त्री लेकर किस प्रकार घर गृहस्थी चलावेगा ? उसका एक और ब्याह करा दो । यदि उस समय स्वामी हँसकर केवल यही कह देते कि बुआ, यह तो बहुत अच्छी बात है। तुम्हीं कोई अच्छी लड़की देख सुनकर ठीक कर दो, तो सारी बात साफ हो जाती। पर उन्होंने कुछ कुण्ठित होकर कहा-बुधाजी, तुम ये कैसी बातें कर रही हो ! बुझाने उत्तर दिया-वाह ! भला मैं इसमें अन्यायकी कौन-सी बात कर रही हूँ ? भला बहू, तुम्हीं बतलाश्रो कि मैंने क्या बुरा कहा ? मैंने हँसकर. कहा-बुधाजी, तुम भी अच्छे आदमीसे सलाह ले रही हो। जिसकी गाँठ काटनी होती है, क्या उससे भी कभी कोई सम्मति लेता है ? बुझाने उत्तर दिया-हाँ भाई, यह बात तो तुम
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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