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________________ रवीन्द्र- कथाकुञ्ज शेखरने भी अपने इतने दिनों के समस्त गीतोंको व्यर्थ समझा। इसके बाद उनमें शक्ति न रही कि कुछ गावें । उस दिनकी सभा भी भंग हो गई । १० ४ दूसरे दिन पुण्डरीकने व्यस्त और समस्त, द्विव्यस्त और द्विसमस्तक, वृत्त, तार्क्स, सौत्र, चक्र, पद्म, काकपद, श्राद्युत्तर, मध्योत्तर, अन्त्योत्तर, वाक्योत्तर, वचनगुप्त, मात्राच्युतक, च्युतदत्ताक्षर, अर्थगूढ, स्तुति, निन्दा, अपहनुति, शुद्धापभ्रंश, शाब्दी, कालसार, प्रहेलिका श्रादिका अद्भुत शब्द-चातुर्य दिखाया जिसे सुनकर सारी सभा के लोग विस्मित हो रहे । ; शेखरकी वाक्यरचना बहुत ही सरल थी । उसे सर्वसाधारण सुख दुःखमें और उत्सव ग्रानन्दमें निरन्तर पढ़ा करते थे । श्राज उन्होंने साफ समझा कि उसमें कोई खास खूबी नहीं है । मानो यदि वे चाहते तो स्वयं भी वैसी रचना कर सकते केवल अभ्यास, अनिच्छा, और अनवसर यदि कारणोंसे ही नहीं कर सके; नहीं तो उसमें कुछ ऐसी विशेष नूतनता नहीं है । वह दुरूह भी नहीं है; उससे पृथ्वीके लोगोंको कोई नूतन शिक्षा भी नहीं मिलती और न कोई लाभ ही होता है । किन्तु श्राज जो कुछ सुना, वह अद्भुत था और कल जो कुछ सुना था, उसमें भी बहुत गहरे विचार और सीखने समझने की बातें थीं। पुण्डरीकके पारित्य और चातुर्य के सामने उन्हें अपना afa faतान्त बालक और साधारण मनुष्य प्रतीत होने लगा । ; मगरमच्छ के पूँछ फटकारने से पानी में जो भीषण आन्दोलन हुआ करता है, उसके प्रत्येक प्राघातको जिस तरह सरोवरका कमल अनुभव कर सकता है, उसी तरह शेखर ने अपने हृदय में चारों ओर बैठे हुए सभा-जनों के मनका भाव अनुभव किया ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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