SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज दिन, बल्कि पल पलपर मज्जाके अन्दरसे कठिन होते जाना, बाहरकी ओर बढ़ते बढ़ते अन्तरको तिल तिल करके दबा डालना था। मैं इसका प्रतिकार सोचने लगी ; पर मुझे कोई रास्ता दिखलाई नहीं दिया। स्वामीको मैं अपनी आँखोंसे नहीं देख सकती थी, यह तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं । पर जिस समय मुझे इस बातका ध्यान आता कि जिस स्थानपर मैं हूँ, उस स्थानपर स्वामी नहीं हैं, तब अन्दरसे मेरा कलेजा फटने लगता । मैं अन्धी थी, संसारके श्रालोकसे वर्जित अन्तर प्रदेशमें मैं अपने जीवनके प्रारम्भिक कालका नवीन प्रेम, अक्षुण्ण भक्ति और अखंड विश्वास लिये हुए बैठी थी। बाल्यावस्थामें अपने जीवन के प्रारम्भमें मैंने अपने हाथोंकी अँजुलीसे अपने देवमन्दिर में शेफालिकाका जो अर्घ्य दिया था, उसकी नमी अभी तक सूखी नहीं थी और मेरे स्वामी यह छाया-शीतल और चिर-नवीनताका देश छोड़कर रुपये पैदा करने के पीछे संसारकी मरु भूमिमें न जाने कहाँ अदृश्य होते चले जा रहे थे। मैं जिस बातपर विश्वास करती थी, जिसे धर्म कहती थी, जिसे समस्त सुख सम्पत्तिसे बढ़कर समझती थी, मेरे स्वामी बहुत दूरसे उसी बातके प्रति हँसते हुए देखा करते थे। परन्तु एक दिन ऐसा भी था जब कि यह विच्छेद नहीं था। उस समय हम लोगोंने जीवन के प्रारंभमें एक ही मार्गपर साथ साथ यात्रा आरम्भ की थी। उसके उपरान्त हम लोगों के मार्गमें कब अन्तर पड़ना प्रारम्भ हुआ, यह न तो वही जान सके और न मैं ही जान सकी। अब अन्तमें श्राज वह दिन आ पहुँचा, जब कि मैं उन्हें पुकारती हूँ और मुझे कोई उत्तर नहीं मिलता है । कभी कभी मैं सोचा करती कि अन्धी होनेके कारण मैं किसी बातको बहुत बढ़ाकर देखती हूँ। यदि मेरी आँखें रहतीं, तो बहुत
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy