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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज उसका किसी प्रकारका प्रतिवाद न कर सकीं। मैं फिर मानो लौटकर अपनी उसी बाल्यावस्थामें चली गई। हाँ, केवल अपनी माँको मैं नहीं पा सकी। मैंने मन ही मन देखा कि मेरी बड़ी बहन बाल खोले हुए धूपकी ओर पीठ किये आँगनमें बैठी बड़ियाँ दे रही है ; पर उसके मृदु कम्पित प्राचीन दुर्बल कण्ठसे हमारे गाँवके साधु भजनदासका देह-तत्त्वसम्बन्धी गान मुझे नहीं सुनाई पड़ा। ___ वही नवान्नका उत्सव शीतकालके शिशिर-स्नात श्राकाशमें सजीव होकर जाग उठा; परन्तु ढेकीमें नया धान कूटने के लिए होनेवाली भीड़में मेरे गाँवकी छोटी छोटी सहेलियोंका जो समागम होता था वह कहाँ चला गया ? सन्ध्याके समय कहीं पासहीसे गौओंके रँभानेकी आवाज सुनाई देती थी। उस समय मुझे ऐसा जान पड़ता था कि मानो माँ हाथमें सन्ध्याका दीपक लेकर ग्वालेको दिखलानेके लिए जा रही है। साथ ही मानो भीगी हुई सानी और जलती हुई घासके धूएँकी गन्ध हृदयमें प्रवेश कर रही है। मानो ऐसा सुनाई पड़ता था कि पोखरीके उस पार विद्यालंकार महाशयके मन्दिरमेंसे घडियाल और घण्टाका शब्द आ रहा है । मुझे ऐसा जान पड़ता था कि मानो किसीने मेरी बाल्यावस्थाके आठ वर्षों से उसका समस्त वस्तु-अंश नितराकर केवल रस तथा गन्धका ही मेरे चारों ओर ढेर लगा दिया है। साथ ही मुझे यह भी याद आया कि मैं बाल्यावस्थामें व्रत रखा करती थी और प्रातःकाल के समय फूल तोड़कर शिवकी पूजा किया करती थी। यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि कलकत्तेकी बातचीत और रहन-सहनके झगड़े से बुद्धि में कुछ न कुछ विकार आ ही जाता है। धर्म, कर्म, भक्ति और श्रद्धा आदिमें वह निर्मल सरलता नहीं रह जाती। उस दिनकी बात मुझे याद आती है, जिस दिन मेरे अन्धे होनेके उपरान्त कलकत्ते में हमारे महल्लेकी रहनेवाली एक सखीने श्रा
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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