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________________ १६६ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज परन्तु इतनी आकांक्षा, इतना अधिक निर्भर होना तो अच्छा नहीं। एक तो स्वामीके ऊपर स्त्रीका भार ही यथेष्ट है; उसके ऊपरसे यह अन्धताका भारी बोझ मैं नहीं लाद सकती। मैंने सोचा कि यह विश्वव्यापी अन्धकार मैं स्वयं ही अपने ऊपर लूँगी । मैंने एकाग्र मनसे प्रतिज्ञा की कि अपनी इस अन्धताके द्वारा मैं अपने स्वामीको अपने साथ बाँधकर नहीं रक्तूंगी। __थोड़े ही दिनोंमें मैं केवल शब्द, गन्ध और स्पर्शके द्वारा अपने सभी अभ्यस्त कार्य सम्पन्न करने लगी। यहाँ तक कि मैं अपने अनेक गृह-कार्य पहलेसे भी अधिक निपुणताके साथ करने लगी । अब मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि दृष्टि मेरे कामों में जितनी सहायता दिया करती थी, उससे अधिक वह मुझे विक्षिप्त कर दिया करती थी। अब मैं यह सोचने लग गई कि जितना कुछ देखनेसे काम अच्छी तरह हो सकता है, आँखें उससे कहीं अधिक देखती हैं । और जब आँखें पहरेका काम करती हैं, तब कान बिलकुल आलसी हो जाते हैं । जितना कुछ उन्हें सुनना चाहिए, उसकी अपेक्षा वे बहुत कम सुनते हैं । चंचल आँखोंकी अनुपस्थितिमें अब मेरी और सब इन्द्रियाँ अपना अपना कर्तव्य शान्त और सम्पूर्ण भावसे करने लग गई। .. अब मैं अपने स्वामीको अपना कोई काम नहीं करने देती और उनके सब काम भी पहलेकी ही भाँति स्वयं मैं ही करने लग गई। स्वामीने मुझसे कहा-तुमने तो मुझे मेरे प्रायश्चित्तसे भी वंचित कर दिया। ... मैंने कहा- मैं तो यह जानती ही नहीं कि तुम्हारा प्रायश्चित्त कैसा और किस बातका है । पर स्वयं अपने पापका भार मैं आप ही क्यों बढ़ाऊँ ?
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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