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________________ दृष्टि-दान : मैंने कहा-नहीं, यह कोई अच्छी बात नहीं है। तुम तो अपनी गृहस्थीको अन्धोंका अस्पताल बना रखना चाहते हो। पर मैं यह बात कभी होने नहीं दूंगी । तुम्हें और एक विवाह करना होगा। ___ यह विवाह करना किस लिए नितान्त आवश्यक है, यह बात विस्तारपूर्वक बतलानेसे पहले मेरा गला कुछ अँधने-सा लगा। कुछ खाँसकर और कुछ अपने आपको सँभालकर मैं कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने में मेरे स्वामी श्रावेगपूर्वक बोल उठे-मैं मूढ़ हूँ, मैं अहं. कारी हूँ, परन्तु पाखंडी नहीं हूँ। मैंने अपने हाथोंसे तुम्हारी आँखें नष्ट की हैं । यदि मैं अन्तमें इसी दोष के कारण तुम्हारा परित्याग कर दूं और कोई दूसरी स्त्री ग्रहण कर लूँ , तो मैं अपने इष्टदेव गोपीनाथ. की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैं ब्रह्म-हत्या और पितृ-हत्याका पातकी होऊँ। __ मैं उन्हें इतनी बड़ी शपथ न खाने देती, बीचमें ही रोक देती, परन्तु उस समय आँसू मेरे कलेजेको बहाकर, गलेको दबाकर और आँखोंको पूरी तरहसे भरकर जबर्दस्ती निकल पड़नेका उद्योग कर रहे थे ; और उन पासुनोंको रोककर मैं मुँहसे कुछ कह ही नहीं सकती थी। उन्होंने जो कुछ कहा था, उसे सुनकर मैं विपुल प्रानन्दके उद्वेगमें तकिएमें मुंह छिपाकर रोने लगी। मैंने सोचा कि मैं अन्धी हो गई हूँ, फिर भी ये मुझे नहीं छोड़ेंगे । दुःखी जिस प्रकार दुःखको अपने हृदयमें रखता है, उसी प्रकार ये भी मुझे अपने हृदयमें रक्खेंगे । मैं इतना सौभाग्य नहीं चाहती थी ; पर मन तो स्वार्थी होता है। ___अन्तमें जब बहुत जोरसे बरसने के कारण आँसुत्रोंका पहला जोर कुछ कम हो गया, तब मैंने उनका मुँह अपनी छातीके पास खींचकर कहा-भला तुमने ऐसी भयंकर शपथ क्यों खाई ? मैंने क्या तुम्हारे सुखके लिए तुमसे विवाह करने के लिए कहा था ? मैं तो सौतसे अपना
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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