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________________ दृष्टि दान भसे हो रहे हैं । मानो वे बहुत कुछ सोचनेपर भी यह नहीं समझ सकते हैं कि इतने दिनोंके उपरान्त अब मैं किस बहानेसे किसी डाक्टरको बुलाऊँ। ___ मैंने उनसे कहा-यदि भइयाका मन रखने के लिए तुम एक बार किसी डाक्टरको बुलाकर दिखला दो, तो इसमें हर्ज ही क्या है ! वे इसी बातके लिए व्यर्थ ही मनमें नाराज होते हैं, जिससे मुझे भी अन्दर ही अन्दर कष्ट होता है। चिकित्सा तो तुम्ही करोगे। एक डाक्टरका उपसर्गके रूपमें रहना अच्छा ही है । स्वामीने कहा-तुम ठीक कहती हो। इतना कहकर वे उसी दिन एक अँगरेज डाक्टरको ले आये। उन लोगों में क्या बातचीत हुई, यह तो मैं नहीं जानती, पर मेरी समझमें इतना जरूर पाया कि डाक्टरने मेरे स्वामीको कुछ फटकार बतलाई और वे चुपचाप सिर झुकाये हुए उसके सामने खड़े रहे। ___ जब डाक्टर चला गया, तब मैंने अपने स्वामीका हाथ पकड़कर कहा-तुम कहाँसे यह गवाँर गोरा पकड़ लाये थे ! कोई देशी डाक्टर ले आते । भला क्या वह मेरी आँखोंका रोग तुमसे अधिक समझ सकेगा? __ स्वामीने कुछ कुण्ठित होकर कहा- तुम्हारी आँखों में नश्तर देने की आवश्यकता हुई है। मैंने कुछ क्रोधका आभास दिखलाते हुए कहा-यह तो तुम पहलेसे ही जानते थे कि नश्तर लगाना पड़ेगा ; पर प्रारम्भसे ही तुमने यह बात मुझसे छिपा रक्खी थी। क्या तुम यह समझते हो कि मैं नश्तरसे डरती हूँ ? . . स्वामीकी लज्जा दूर हो गई। उन्होंने कहा-भला तुम्हीं बतलायो
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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