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________________ " रवीन्द्र कथाकुल कोई भारी विषय छेड़ता था; तब तब किरण किसी न किसी बहानेसे आकर उस चर्चाको बीचमें ही तोड़ देती थी। इससे मैं, मन ही मन पुलकित हो उठता था। मैं समझता था कि किरणने मेरा अभि. प्राय समझ लिया है । उसे किसी प्रकार यह मालूम हो गया है कि भवनाथ बाबूके साथ तत्त्वालोचना करने में ही मेरे जीवनका चरम सुख नहीं है । जिस समय मैं बाह्य वस्तुओंके साथ अपने इन्द्रिय-बोधका सम्बन्ध निश्चित करने के लिए दुरूह रहस्य-रसातलके मध्य भागमें पहुँचता था, उस समय किरण आकर कहती थी-आइए महीन्द्र बाबू , चलिए रसोई घरके पास ही मेरा बैंगनका खेत है, आपको दिखला लाऊँ। एक दिन मैं अपना यह मन्तव्य प्रकट कर रहा था कि 'आकाशको असीम समझना हम लोगोंका अनुमान मात्र है ; हम लोगोंकी अभिज्ञता और कल्पना शक्तिके बाहर कहीं किसी ऐसी सीमाका होना असम्भव नहीं है कि इतने में किरण श्राकर कहने लगी-'महीन्द्र बाबू , दो श्राम पक गये हैं। श्राप चलकर डाल झुकाकर वह ग्राम तोड़ दीजिए।' कैसा अच्छा उद्धार था! कैसी अच्छी मुक्ति थी ! अनन्त समुद्रके' मध्यमेंसे क्षण ही भरमें मैं कैसे सुन्दर किनारेपर था पहुँचता था । अनन्त आकाश और बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धमें संशय-जाल कितना ही अधिक दुश्छेद्य और जटिल क्यों न हो, परन्तु बैंगनके खेत अथवा आमोंके सम्बन्धमें किसी प्रकारकी दुरूहता अथवा सन्देहका नाम भी नं था । वह काव्य या उपन्यासमें उल्लेख करनेके योग्य तो नहीं है, पर फिर भी जीवनमें वह समुद्रसे घिरे हुए द्वीपके समान मनोहर है । जमीनपर पैर टिकनेसे कैसा आराम मिलता है, यह वही जानता है जो बहुत देर तक पानीमें गोता खा चुकता है। मैंने इतने दिनों
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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