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________________ अध्यापक सुन्दरी अवकाश-प्रतिमा पाकर बैठ गई है। पैरोंके नीचे गंगा है ; सामने दूरका दूसरा किनारा और ऊपर तीव्र रूपसे तपता हुआ नीला आकाश है। ये सव अपनी उस अन्तरात्मारूपिणीकी श्रोर~उन्हीं दोनों खुले हुए पैरों, उसी अलसविन्यस्त बायें हाथ और उसी उत्क्षिप्त बंकिम कण्ठ-रेखाकी अोर---पूर्ण निस्तब्ध और एकाग्र होकर चुपचाप देख रहे हैं। जितनी देर तक वह दृश्य दिखलाई दिया, उतनी देर तक मैं देखता रहा और अपने दो सजल नेत्ररूपी पल्लवोंसे उन दोनों चरणकमलोंको बार बार माँजता-पोंछता रहा । अन्तमें जब नाव वहाँसे कुछ दूर चली गई और किनारेके एक वृक्षकी आड़में हो गई, तब सहसा मानो मुझे यह याद पाया कि मुझसे कोई भूल हो गई। मैंने चौंककर मल्लाहसे कहा-देखो जी, अब अाज हमारा हुगली जाना नहीं हो सका। अब तुम यहींसे नाव लौटाकर घरकी पोर ले चलो। पर जब नाव लौटने लगी, तब चढ़ाव होने के कारण मल्लाहोंको डाँड खेना पड़ा। उसके शब्दसे मैं कुछ संकुचित हो गया । मानो डाँड़का वह शब्द किसी ऐसे पदार्थपर आघात करने लगा, जो सचेतन, सुन्दर और सुकुमार है, जो अत्यन्त आकाशव्यापी है और जो हिरनके बच्चे के समान भीरु है। नाव जब फिर उस घाटके पास पहुंची, तब डाँडका शब्द सुनकर मेरी पड़ोसिनने धीरे ले सिर उठाकर बहुत ही कोमल कुतूहलपूर्वक मेरी नावकी ओर देखा। पर क्षण ही भर बाद वह मेरी व्यग्र और व्याकुल दृष्टि देखकर चकित हो गई और घरके अन्दर चली गई। उस समय मुझे ऐसा जान पड़ा कि मानो मैंने उसे कोई आघात पहुँचाया है--मानो मेरे कारण उसे कहीं चोट लगी है। जब वह जल्दी जल्दी उठने लगी, तब उसकी गोदमेंसे प्राधा
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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