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________________ ४ श्रादमी को घन का खजना मिल गया हो, प्रथवा मयूर को मेघ दीख पड़ा हो, किंवा चकोर ने चन्द्रमा को पा लिया हो । ननु नमोऽविति वारिपुरस्पर मनुनिजं खलु विल्वफलं शिरः । सुललितं मनः कुसुमंदधदपि ययौ सुकृतैकतरोग्धः ||२६|| प्रथं जो मुनि महाराज प्रति उत्तम पुण्य के वृक्ष थे, प्रत: उसने उनके प्रागे जल सोंचने का सा काम करते हुये नमोऽस्तु इस प्रकार शब्द बोला, पोर घपने महा मनोहर मनरूप फूल को भी उनके चरणों में लगाया तथा वहीं पर बोलफल सरीखे अपना सिर भी घर दिया एवं मन वचन और काय से उन को बम्बना करके उनके प्रागे बैठ गया । भवसि भव्यपयोरुहवल्लभस्त्वमसि सूर्य इवान्वितसत्सभः । जगति शावरचेष्टितदूरग इतिविधावपि शात्रवपूरगः । २७। -- अर्थ- प्रौर इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगा कि हे महाराज प्राप भव्य कमलों के प्यारे हो, तारावों के समान निर्मल चेष्टा वाले सज्जनों की परम्परा प्रापके पीछे २ लगी ही रहती है इसलिये सूर्य के समान हो, सूर्य जिस प्रकार रात्रि के अन्धकार को मेट देता है वंसे ही प्राप भी जवान औरतों के द्वारा फैलाई हुई कामचेष्टा के फन्दे से बिलकुल परे हो और सूर्य जैसे चन्द्रमा का बंरी होता है, आप भी कर्मों के विरोधी हो ।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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