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________________ ८३ राज्य उसको सोंपकर प्रब वह प्राप संसार का प्रभाव करने के लिये उठ खड़ा हुवा । वणिगिवार्जयितु ं म नवं वनं गज इव प्रपत्रँश्च न बन्धनः । सदनतः प्रचचाल वनं प्रति भवितुमत्र तु पूर्णतया यतिः । २३ अर्थ - इसके बाद वह बिना बन्धन के हाथी की तरह स्वतन्त्र होकर फिर नवीन धन को कमाने की प्रमिलाबावाले बनिये की भांति वह अपने घर से पूर्ण तौर पर पनि बनने के लिये सोधा वनके सम्मुख चल पड़ा । इति तमोऽपगमात् म इतो वनं झगिति कोक इवाय तपोधनं । पितरमेव गुरुं च विन्दः प्रथममङ्गभृतामभिनन्दिषु |२४| प्रयं - इस प्रकार प्रज्ञान के नाश हो जाने से गुरुदेव को वन्दना करने की इच्छा वाला वह चक्रायुध वन में जाकर परम तपस्वी प्रपने ही पिता श्री प्रपराजित नाम मुनिराज को प्राप्त हुवा, जो कि मुनि महाराज दुनिया के लोगों को प्रसन्न करनेवालों में सबसे मुख्य गिने जाते थे। उस समय ऐसा जान पड़ना था कि जैसे रात्रि का अन्धकार हट जाने पर चकवा पक्षी ही तेजके धारक सूर्य को प्राप्त हुआ। निधिमिवाविन कदथितः जलमुचं खलु वहममर्थितः । विधुमवेक्ष्य चकोर इवान्वितः समभवन्म तदा पुलकाञ्चितः । २५ प्रथं उस समय वह उन्हें देखकर ऐसा राजी हुआ कि रोमाञ्चों के मारे फूल गया, जैसे कि किसी धन के बिना दुःखी होने वाले
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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