SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३ अथ द्वितीय सर्गः भृणुत प्रतिपचिपूर्वकं प्रवदामीदमथो किलाहकं । भरतेऽत्र गिरिर्मानुरुर्विजाद्धों घरणीभृतां गुरुः || १ || अर्थ- इसके बाद वह लड़का बोला कि प्राप लोग ध्यान पूर्वक सुने, मैं उसीका स्पष्टीकरण करता हूँ । देवो इसी भारतवर्ष में विजया नामका एक बहुत ही बड़ा पर्वत है, बल्कि समझना चाहिये कि वह और सब पहाड़ों का गुरु ही है । य उदक् ममुपस्थितोऽमृतः स्थलनः सवलतः प्रवर्तिनः । स्वयमर्द्ध जयाय मध्यमां भग्नम्यास्ति च चक्रवर्तिनः || २ || प्रर्थ-जो पर्वत यहां से उत्तर की तरफ जाकर इस भारत वर्ष के ठीक बीच में है और अपनी मेना सहित दिग्विजय के लिये निकले हये चक्रवर्ती की प्राधी विजय को बनानेवाला है, वहां तक पहुंचने पर यह खण्डों में से तीन खण्ड उसके प्रधीन हो जाते हैं। स्वरुचा घनमारमार जिन प्रजख्या अवनेः म भूधरः । ननुशेष मशेषमा प्रवेशप्रतिमोऽतिसुन्दरः ||३|| अर्थ- जो कि अपनी कान्ति में कपूर के ढेर को जोतने वाला है और लम्बा पड़ा हुवा है इसलिये शेष नाग को भी परास्त करता हुआ वह इस बहुत हो बुढो पृथ्वी को लम्बी चोटो सरीखा बहुत ही सुन्दर दिखता है ।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy