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________________ आनन्दघन का रहस्यवाद मानवीयकरण, रूपकों, उलटवासियों के अतिरिक्त जैन-परम्परागत अनैकान्तिक-दृष्टि, निश्चय और व्यवहारमूलक नय-पद्धति तथा समन्वयात्मक शैली का भी अनुसरण किया है। सन्त आनन्दघन के रहस्यवादी दर्शन के अन्तर्गत् प्रयुक्त पद्धतियाँ प्रमुखतः इस प्रकार हैं : (१) प्रतीकात्मकता। (२) अमूर्त तत्त्वों का मानवीयकरण । (३) रूपकात्मक-पद्धति। (४) रहस्यात्मकता। (५) अनैकान्तिक-दृष्टि । (६) निश्चय और व्यवहारमूलक नय-पद्धति । (७) समन्वय-दृष्टि । प्रतीकात्मकता ___ “प्रतीक से अभिप्राय किसी वस्तु की ओर इंगित करनेवाला न तो मंकेत मात्र है, न उसका स्मरण दिलानेवाला कोई चित्र या प्रतिरूप ही। यह उसका एक जीता-जागता तथा पूर्णतः क्रियाशील प्रतिनिधि है जिस कारण इसे प्रयोग में लाने वाले को इसके व्याज से उसके उपयुक्त सभी प्रकार के भावों का सरलतापूर्वक व्यक्त करने का पूरा अवसर मिल जाया करता है।" "प्रतीक-योजना उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा किसी जटिल एवं अमूर्त भावना का भी कोई सरल एवं स्थूल स्वरूप चित्रित किया जा सकता है”।२ सूफी साहित्य में प्रतीकात्मकता का प्रयोग प्रचुर परिमाण में हुआ है। अंग्रेजी के रहस्यवादीकाव्य में भी इसका सर्वप्रथम प्रयोग कवि ब्लैक और ईट्स द्वारा किया गया। भारतीय आध्यात्मिकधार्मिक ग्रन्थों में भी प्रतीक-योजना के उदाहरण मिलते हैं। रहस्य-भावना की अभिव्यक्ति में प्रतीक-पद्धति कई तरह से सहायक होती है। आनन्दघन ने भी अपने रहस्यवाद की अभिव्यक्ति विविध प्रकार के प्रतीकों के माध्यम से की है। किन्तु उनके द्वारा अपनाए गए विभिन्न प्रतीकों में दाम्पत्य-प्रतीक-प्रधान है। १. कबीर साहित्य की परख, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, प.० १४६ । २. रहस्यवाद, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, प. ८२ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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