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________________ तृतीय अध्याय आनन्दघन की विवेचन-पद्धति अध्यात्म अतिगूढ़ विषय है । दार्शनिक-बुद्धि तथा वर्णनपरक भाषा उसे स्पष्ट करने में असमर्थ ही रहती है । सन्त आनन्दघन का रहस्यवादीदर्शन भी अध्यात्ममूलक है । उनका प्रधान लक्ष्य आत्मानुभव है और रहस्यदर्शी साधक के लिए यह स्वाभाविक भी है; क्योंकि उसकी अनुभूतियाँ उस परम सत्ता की अनुभूतियाँ हैं जो अवाङ्मनस गोचर हैं, जिसके सम्बन्ध में 'नेति नेति' कह कर ही सन्तोष मानना पड़ा । रहस्यदर्शी साधक रहस्यमय परम तत्त्व से भावात्मक - तादात्म्य स्थापित करने के लिए आकुल रहता है । अन्ततः उसे रहस्यमय तत्त्व की ऐसी गहरी अनुभूतियाँ होती हैं जिनका शब्दों में वर्णन करना सम्भव नहीं । भाषा उन अनुभूतियों को अपनी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने में असमर्थ रहती है । अतः ऐसे गूढ़ातिगूढ़ आध्यात्मिक तथ्यों की अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए रहस्यवादियों को विभिन्न प्रतीकों, रूपकों, उलटवासियों आदि विवेचन-पद्धतियों की शरण लेनी पड़ती है । रहस्यात्मक अनुभूति स्व-संवेद्य है और है वाणी द्वारा अवाच्य । वैदिक ऋषियों से लेकर आज तक पूर्वी एवं पश्चिमी सन्तों, सिद्धों एवं रहस्यदर्शी साधकों सभी ने परमतत्त्व और उसकी अनुभूति को एक स्वर से 'अकथ' कहा है । तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा है- 'यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" अर्थात् वहां मन (बुद्धि विकल्प ) की पहुंच नहीं है । वाणी भी वहां से लौट आती है । इसी की प्रतिध्वनि केनोपनिषद् में 'यद्वाचाऽनभ्युदितम्' के रूप में हुई है । उस अलौकिक दिव्य तत्त्व में बुद्धि और वाक् की गति नहीं है । कठोपनिषद् में आत्मज्ञान को सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं तर्क से अतीत कहा गया है । और बताया गया है कि वह परब्रह्म परमात्मा वाणी आदि कर्मेन्द्रियों, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों और १. तैत्तिरीय उपनिषद्, २०४ २. केनोपनिषद्, ११४ ३. वही, १1३ ४. कठोपनिषद्, ११२८
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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