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________________ ७८ आनन्दघन का रहस्यवाद आचार्य विजयानंद सूरि (आत्माराम जी महाराज) ने लिखा है कि "श्रीसत्यविजय गणि जी क्रिया का उद्धार करके आनन्दघन के साथ बहुत वर्ष लग वनवास में रहे और बड़ी तपस्या योगाभ्यासादि करा।"' श्रीमोतीचन्द कापड़िया के अनुसार पं० सत्यविजयजी ने आनन्दघन के साथ कई वर्ष वनादि में विचरण किया। इसके अतिरिक्त उपाध्याय यशोविजय और आनन्दघन का समागम हुआ था एवं राजस्थान और गुजरात में तपागच्छ का असाधारण परिबल देखकर आनन्दघन को तपागच्छ का मानते हैं। उनका कहना है कि आनन्दघन को व्यावहारिक दृष्टि से तपागच्च में दीक्षित होना चाहिये । श्रीमनमुखलाल मेहता भी आनंदघन को तपागच्छ का सिद्ध करते हैं। इसके लिए वे भी 'जैन तत्त्वादर्श' ग्रन्थ का ही आधार लेते हैं। दूसरा तर्क वे यह देते हैं कि आनन्दघन ने द्रव्य-पूजा की विधि का सुविधि जिनस्तवन में जो उल्लेख किया है उससे प्रतीत होता है कि उन्हें तपागच्छ में दीक्षित होना चाहिए। मेहता का प्रथम तर्क कुछ समुचित प्रतीत होता है, किंतु दूसरा तर्क युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि आनन्दघन ने जिस द्रव्य-पूजा की विधि का अपने स्तवन में वर्णन किया है, वह मात्र तपागच्छ में ही नहीं, प्रत्येक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गच्छ में प्रचलित है। द्रव्य-पूजा की विधि में तपागच्छ और खरतरगच्छ में तो भेद है ही नहीं, क्योंकि आनन्दघन द्वारा उल्लिखित द्रव्यपूजा और भावपूजा की विधि तो दोनों गच्छों में प्रायः समान ही है। अतः यह कहा जा सकता है कि मनसुखलाल मेहता का यह कथन समुचित नहीं है कि आनन्दघन ने द्रव्य-पूजा की जिस विधि का वर्णन किया है उसके आधार पर वे तपागच्छ में दीक्षित हुए होगें। तपागच्छ के उपाध्याय यशोविजय आनन्दघन के समकालीन थे। अध्यात्म योगी आनंदघन के साथ उनका समागम हुआ था और उनसे १. जैन तत्त्वादर्श (उत्तरार्द्ध, पु० ५८१ । २. श्रीआनन्दघन जी ना पदो, भाग १, पृ० २३ । ३. जैन काव्य दोहन, भाग १, पृ० १३ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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