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________________ आनन्दधन का रहस्यवाद उनके लिए तो आनन्द ही सब कुछ था । वही माता, वही पिता और वही प्राण था। आनन्द मात्र अनुभवगम्य है। आत्मा से ही आनन्द प्राप्त होता है। आनन्दघन का यह आनन्द बाहरी वस्तुओं पर निर्भर नहीं, उनकी अन्तरात्मा में निहित था । वे मात्र आत्मानन्द में डूबे हुए थे। आनन्द स्वाश्रित होता है। जो पराश्रित हो, दूसरों पर निर्भर हो, वह तो आनन्द ही नहीं हो सकता। आनन्द का स्रोत आनन्दघन ने पदार्थ और जागतिक वैभव में नहीं अपनी आत्मा में पा लिया था। वे आत्मतुष्ट, निरकांक्ष और निर्लिप्त थे। अन्तर्मुखी प्रवृत्तिशील ___ आनन्दघन का व्यक्तित्व वैराग्य और अध्यात्म में रंगा था। वे अन्तमखी प्रवृत्ति के आध्यात्मिक सन्त थे। उनकी आध्यात्मिकता अनुभवजन्य थी। उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान से ही कोई मुनि हो सकता है। आनन्दघन 'श्रमण' का लक्षण कहते हैं : ____ आतमज्ञानी श्रमण कहावै, बीजा तो द्रव्यलिंगी रे।' जो आत्मज्ञान से युक्त है, वही श्रमण है, शेष तो मात्र द्रव्यलिंगी अर्थात् वेषधारी हैं। प्रेमयोगी __ आनन्दघन विशुद्ध प्रेमयोगी थे। उनके पदों में प्रेम की धारा अबाध गति से बहती है। उन्होंने अपने समग्न काव्य में प्रेम के सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान का रहस्य 'गागर में सागर' की भांति भर दिया है। उनकी दृष्टि में प्रेम का सम्बन्ध सोपाधिक न होकर निरुपाधिक है और वह क्षणिक न होकर सादि-अनन्त है अर्थात् प्रेम का प्रारम्भ तो है, किन्तु अन्त नहीं। उनकी चतुर्विशति का प्रारम्भ ही प्रेम से होता है। प्रीति की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए वे लिखते हैं : ऋषभ जिणेसर प्रीतम माहरो, और न चाहूँ कंत। रीझ्यो साहब संग न परिहरे, भांगे सादि-अनंत ॥ वासुपूज्य जिन स्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली। २. ऋषभजिन स्तदन, आनन्दघन ग्रन्थावली ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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