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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद ३३३ जा सकता है। इसलिए यहाँ भी उनका 'लोयण' से अभिप्राय आत्म-ज्ञान रूपी दिव्य-नेत्रों से है। परमात्मा का साक्षात्कार होते ही आत्मिक दृढ़ता बढ़ जाती है और इसीलिए वे दृढ़ आत्मबल के साथ कह उठते हैं कि जिसने परमात्मा रूपी नाथ को अपने सिर पर धारण कर लिया है यानी जिसे परमात्मा रूपी स्वामी का आधार मिल गया है उसे राग-द्वेष-मोहादि आन्तरिक शत्रु अपना शिकार कैसे बना सकते हैं ? इसके साथ ही उन्हें परमात्म-दर्शन से सम्यग्दर्शन-ज्ञान रूप आत्मिक सुख-सम्पदा मिली है। वह पौद्गलिक सुख की तरह नाशवान् नहीं है, अपितु अखण्ड और अविनाशी है। इस सम्पदा के प्राप्त हो जाने पर कृतकृत्य होकर वे अपनी मस्ती में बोल उठते हैं म्हारा सीझा वांछित काज। मेरे मनोवांछित कार्य आज सिद्ध हो गए। जिस आत्मिक-सुख-सम्पदा को प्राप्त करने का मेरा मनोरथ था, वह सफल हो गया। उन्होंने कहा है कि परमात्म-साक्षात्कार होने पर सब प्रकार के संशय समाप्त हो जाते हैं और निर्मल सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है। जैसे, सूर्य की किरणों का जाल फैलते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही परमात्म-दर्शन होने पर संशय रूप अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है। परमात्मा का साक्षात्कार होने के पश्चात् साधक में किसी प्रकार का संशय या संकल्प-विकल्प नहीं रह जाता. अपितु उसके सब संशय निर्मूल हो जाते हैं दरसण दीठे जिन तणो रे, संशय रहे न वेध । दिनकर कर भर पसरतां रे, अन्धकार-प्रतिषेध ।' कुछ ऐसा ही भाव शान्तिजिन स्तवन में भी ध्वनित होता है : ताहरे दरसणै निस्तों , मुज सीधां सवि काम रे । आपके दर्शन से यानी परमात्मा का साक्षात्कार होने से मेरा संसार-सागर से निस्तार हो चुका है और मेरे सभी कार्य सिद्ध हो गए हैं। उक्त कथनों से स्पष्ट विदित होता है कि आनन्दघन का परमात्मा से साक्षात्कार हुआ और फलतः उनके समस्त दुःख-दुर्भाग्य एवं संशय दूर हो गए। १. आनन्दघन ग्रन्थावली, विमलजिन स्तवन । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, शान्तिजिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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