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________________ ३२९ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद मात्मा है । 'अप्पा सो परमप्पा' का उद्घोष उनकी इन पंक्तियों में द्रष्टव्य आतम परमातम अनुसारी, सीझे काज सवारी ।' आत्मा आत्म-अर्पण द्वारा किस प्रकार परमात्म-स्वरूप प्राप्त कर लेता है इसके लिए वे एक सुन्दर रूपक देते हैं : जिन सरूप थइ जिन आराधे, ते सहि जिनवर होवे रे । भृङ्गी इलिकाने चटकावे, ते भृङ्गी जग जोवे रे ॥२ उनका स्पष्ट कथन है कि साधक यदि परमात्मरूप होकर परमात्मा की भक्ति करता है तो वह स्वयं परमात्म-स्वरूप हो जाता है। साधक रागद्वेषादि वृत्तियों को छोड़कर तदाकार वृत्ति धारण कर जिनेश्वर की आराधना करता है, वह निश्चित् रूप से परमात्मा बन जाता है। यह एक लोक-प्रसिद्ध उक्ति है कि भ्रमर लट (एक कीट-विशेष को) चटका देता है, भनभनाता है और वह लट सत्रह दिनों में गगन में उड़नेवाली भ्रमरी बन जाती है। शास्त्रकारों ने इसे 'कीट-भ्रमर न्याय' कहा है। जिस प्रकार भ्रमर के ध्यान से कीट भ्रमर बन जाता है, उसी प्रकार परमात्मा के ध्यान से आत्मा परमात्मा बन जाता है। इससे स्पष्ट है कि आनन्दघन के रहस्यवाद का मूलाधार आत्मा-परमात्मा ही है। वे उस परमात्मा के चरणों में आत्म-अर्पण करना चाहते हैं, जो शुद्धात्म रूप है। उनकी दृष्टि में यह आत्म-अर्पण बाह्य नहीं, आत्मा का ही शुद्ध स्वरूप या सार-तत्त्व है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि आनन्दघन किसी अन्य के चरणों में आत्म-अर्पण करने की बात नहीं करते, उनका शुद्धात्मा के चरणों में आत्म-समर्पण करने का उद्घोष है। न केवल उन्होंने आत्म-अर्पण का कथन किया, है, अपितु आत्म-अर्पण का सम्यक् उपाय भी बतलाया है । इस सम्बन्ध में वे कहते हैं : १. आनन्दघन ग्रन्यावली, पद ७५ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, नमिजिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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