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________________ आनन्दधन का भावात्मक रहस्यवाद २९९ भूख पियास न नीदड़ी, विरहिन अति बेहाल । सुन्दर प्यारे पिव बिन, क्यों करि निकसै साल ॥' दर्शन की उत्कण्ठा संस्कृत काव्यशास्त्र में वर्णित विरह की अवस्थाओं में सर्वप्रथम अभिलापा का निर्दश मिलता है। आनन्दघन में इसके भावपूर्ण चित्र मिलते हैं । विरहिणी की सबसे सात्विक अभिलाषा अपने प्रियतम के दर्शन की होती है । चेतन रूप पति विरह से प्रपीड़ित आनन्दघन की समता-प्रिया भी प्रिय-दर्शन के लिए तड़पती है । दर्शन के लिए व्याकुल आनन्दघन की जनता-प्रिया एक स्थल पर दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा व्यक्त करते हुए कहती है दरसन प्रानजीवन मोहि दीजै। बिन दरसन मोहि कल न परत है, तलकि तलकि तन छीजै ॥२ हे प्राणजीवन ! अब तो मुझे अपना दर्शन दो । बिना दर्शन के मुझे चैन नहीं पड़ रही है । तुम्हारे दर्शन के अभाव में मेरा शरीर तड़प-तड़प कर क्षीण होता चला जा रहा है। वस्तुतः मानव जीवन का चरम लक्ष्य है-आत्म-दर्शन-विशुद्ध आत्म-साक्षात्कार । आत्म-दर्शन में हो शान्ति निहित है। काल-लब्धि आती है और मानव की दीर्घकालीन साधना सफल होती है तभी उसे आत्म-दर्शन या प्रिया-दर्शन होता है अर्थात् स्वभाव दशा की उपलब्धि होती है और साधक अपने में अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता है । उपाध्याय यशोविजय ने भी आत्म-दर्शन की उत्कण्ठा को निम्नांकित पद में अभिव्यक्त किया है चेतन अव मोहि दर्शन दीजे । तुम दर्शन शिव-सुख पामीजे, तुम दर्शन भव दीजे ॥३ हे आत्मन् ! अब मुझे अपना दर्शन दो । तुम्हारे दर्शन से ही शिव-सुख (मोक्ष-सुख) मिलता है और तुम्हारे दर्शन से ही यह भव-बन्धन छूटता है । इसी तथ्य को अभिनन्दन जिन स्तवन में आनन्दघन ने और अधिक स्पष्टता से वर्णित किया है। उनकी अन्तरात्मा परमात्मा के दर्शन १. सुन्दर-दर्शन, पृ० २६८ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २४ । ३. अध्यात्म पदावली, पृ० २२३ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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