SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ आनन्दघन का रहस्यवाद अन्तर्हृदय की बात प्रत्येक व्यक्ति से कैसे कही जाय ? जिस प्रकार एक मधुप्रमेही रोगी बिना वैद्य के जीवित नहीं रह सकता है, उसी तरह वह भी आनन्द समूह रूप प्रिय के वियोग में एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती।' विरह-व्यथा के कारण उसका शरीर आकुल-व्याकुल हो रहा है। ऐसी अवस्था में उसे न एक पैसे भर अन्न-कण भाता है, न गहने और वस्त्र पहनना अच्छा लगता है, न समाज में कहीं जाने-आने की इच्छा होती है। और न भाई-बहन, माता-पिता, सगोत्रीय, सजातीय आदि से बात-चीत करना अच्छा लगता है। उसे तो सदैव चेतन प्रिय के दर्शन, स्पर्शन और उनमें एकाग्रता रूप एकतान होकर आत्मानुभव रूप अमृत-रस का पान करने की तमन्ना है। जब तक उसकी यह तमन्ना पूर्ण नहीं होती है तब तक प्राणनाथ के बिछुड़ने की वेदना का वह पार नहीं पा सकती, क्योंकि विरहरूप दुःख का सागर अथाह है । वास्तव में, आनन्दघन का हृदय प्रतिपल अपने प्रभु के बिछोह में तड़पता रहता है । इस आध्यात्मिक विरह की तड़पन का, 'प्रेम की पीर' का हृदयग्राही वर्णन निम्नांकित शब्दों में द्रष्टव्य है : प्राणनाथ बिछुरे की वेदन, पार न पावू पावू थगोरी। आनन्दघन प्रभु दरसन औघट, घाट उतारन नाव मगोरी ॥ क्याँ रै मोनइ मिलस्यै संत सनेही । संत सनेही सुरजन पाखै, राखै न धीरज देही ॥१॥ जण-जण आगलि अंतर गतिनी, वातड़ी करिए केही । आनन्दधन प्रभु वैद वियोगे, किम जीवै मधुमेही ॥ २ ॥ -आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५। २. प्यारे आई मिलो कहा, ऐठे जात । मेरो विरह व्यथा अकुलात गात ॥ १ ॥ एक पईसारी न भावै नाज, न भूषण नहि पट समाज ॥२॥ -वही, पद ७८। ३. भ्रात न मात न तात न गात न, जात न बात न लागत गौरी । मेरे सब दिन दरसन परसन, तान सुधारस पान पगोरी ॥ -वही, पद १७ । ४. वही, पद १७ ॥
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy