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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद भादुं की राति काती सी बहइ, छातीय छिन छिन छीन । प्रीतम सवी छवि निरख कइ, पिउ पिउ पिउ पिउ कीन । वाही चवी चातिक करै, प्राण हरण परबीन ||१|| इक निसि प्रीतम नाउ की, बिसरि गई सुधि नीउ । चातिक चतुर चिता रही, पिउ पिउ पोउ पिउ ॥२॥ एक समइ आलाप कै, कीन्हइ अडाने गाव | सुघर पपीहा सुर धरइ, देत है पीउ पीउ तान ||३|| २९१ इस प्रकार, आनन्दघन ने समता- विरहिणी की मनोदशाओं का सुन्दर चित्रण विरह व्यथा के रूप में विभिन्न पदों में किया है। एक चित्र है कि समता-विरहिणी का चेतन पति उसे भरे यौवन में छोड़कर विभाव - दशा रूप पर घर में चला गया है । इससे वह अत्यधिक दुःखित होती है और उसके मुँह से विरह-व्यथित उद्गार प्रकट होते हैं। प्रिय के वियोग में उसकी युवावस्था व्यर्थ ही जा रही है, जबकि उसके लिए ये दिन आमोदप्रमोद के हैं । उसकी सभी रातें रुदन करते ही बीत रही हैं । इस वियोगावस्था में उसे रत्नजटित आभूषण भी अच्छे नहीं लगते हैं । विरह व्यथा की तीव्रता के कारण कभी-कभी उसके मन में ऐसा विचार आ जाता है। कि प्रिय के बिना जीने की अपेक्षा तो विष खाकर मर जाना उचित है, क्योंकि न सोते चैन है और न श्वांस लेते चैन है । मन ही मन उसे पश्चात्ताप भी होता है । प्रिया की ऐसी विकलता देख कर भी यदि आनन्द समूह रूप प्रिय घर नहीं आते हैं तो वह योगिनी बनकर घर से निकल जाने के लिए भी उद्यत होती है वारे नाह संग मेरो यूं ही जोबन जाय । ए दिन हसन खेलन के सजनी, रोते रैन विहाय ॥१॥ नग भूषण से जरी जात री, मो तन कछु न सुहाय । इक बुद्धि जीय में ऐसी आवत है, लीजै री विष खाइ ॥२॥ ना सोवत है लेत उसासन, मन हो मन पिछताय । afrat go for घर तें, आनन्दघन समजाय || ३ || २ १. -आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३४ । २. वही, पद ९० ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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