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________________ २८६ आनन्दघन का रहस्यवाद हंसती तबह विराणियां, देखी तन-मन छीज्यो हो। समुझी तब एती कही, कोई नेह न कीज्यो हो ।' समता-प्रिया चेतन रूप प्रिय के बिना अपनी सारी सुध-बुध विस्मृत कर बैठी है। उसका पति बाहर विभाव-दशा में चला गया है। अतः वह दुःखरूपी महल के झरोखे में बैठकर टकटकी लगाकर प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा में तप रही है। जब उसे पति-वियोग का अनुभव नहीं था, तब वह पनि-वियोगिनी अन्य स्त्रियों को तन से क्षीण और मन से दुःखित होती हुई देखकर हंसी किया करती थी। किन्तु जब स्वयं को इसका अनुभव हुआ तब उसके मुंह से केवल इतना ही निकला कि 'कोई नेह न कीज्यो हो' इसका कारण यह है कि स्नेही का वियोग जितना अधिक दुःखदायी होता है, उतना अन्य किसी का नहीं। यह नितान्त सत्य है कि शुद्धात्मरूप प्रिय के प्रेम-स्वरूप का जिसने अनुभव किया है, वही साधक उसके वियोग में व्यथित होता है। आनन्दघन ने गवाम-प्रिय के प्रेम-रूप को जाना है तभी उसके मुखारविन्द से एक प्रिय-प्रेम वियोगी के रूप में विरहमय उद्गार निःसृत हुए हैं। आनन्दधन यहां इसी विरहजन-व्यथा का चित्रांकन कर रहे हैं। वे कहते हैं : । प्रीतम प्रानपति बिना, प्रिया कैसे जीवै हो। प्रान-पवन विरहा-दशा, भुअंगनि पीवै हो ।' समता-प्रिया चेतन-प्रियतम के बिना कैसे जीवित रह सकती है ? क्योंकि विरह सर्प के सदृश भयंकर होता है। विरह रूप सर्प उसकी प्राण-वायु को पी रहा है। तात्पर्य यह है कि शुद्ध चेतन के अभाव में समता के चैतन्य प्राण नहीं रह सकते। समता और चेतन कदापि पुष्प और उसकी सुवास की भांति अलग नहीं हो सकते । जहां चेतन है, वहां समता है और जहां समता है वहां चेतन है क्योंकि समता चेतना (आत्मा) का स्वलक्षण है, स्व-स्वभाव है। विरह-दशा में सुखदायक वस्तुए भी दुःख बढ़ाती हैं। इसीलिए कहा है सीतल पंखा कुमकुमा, चन्दन कहा लावै हो । अनल न विरहानल यह है, तन ताप बढ़ावै हो ॥ १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २६ । २. वही, पद २६ । ___३. वही, पद २६ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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