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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद २८३ वास्तव में, आनन्दघन ने अनन्य प्रेम को जिस-तरह आध्यात्मिक पक्ष में घटाया है, वह अनुपम एवं अद्वितीय है। अतः संक्षेप में कह सकते हैं कि आनन्दघन के अनुभूतिम लक भावात्मक रहस्यवाद में प्रेम-तत्त्व की विशद् एवं व्यापक विचारणा हुई है । यहां यह स्पष्ट कर देना उचित प्रतीत होता है कि यद्यपि उनका यह अनन्य प्रेम आध्यात्मिक एवं अलौकिक है, तथापि जन-साधारण के लिए उन्हें इस आध्यात्मिक प्रेम की अनुभूति को दाम्पत्यमूलक रूपकों के माध्यम से अभिव्यक्त करना पड़ा है। ___ यहाँ सहज प्रश्न उठ सकता है कि उच्चकोटि के पहुंचे हुए आनन्दघन जैसे आध्यात्मिक सन्त को अध्यात्म के क्षेत्र में आत्म-ब्रह्म-प्रेम को लौकिक सम्बन्धों के द्वारा व्यक्त करने की आवश्यकता क्यों हुई? इसका उत्तर सीधा है। आध्यात्मिक प्रेम की अनुभूति को ज्यों का त्यों शब्दों में प्रकट करना कठिन होता है । बिना रूपकों-प्रतीकों की सहायता लिए आध्यात्मिक अनुभूतियों को सामान्य शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। आनन्दधन यदि रूपकों की सहायता नहीं लेते तो उनकी रहस्यमय स्वानुभूति की अभिव्यक्ति ही नहीं हो पाती और वह जन-साधारण की समझ में भी नहीं आती। यही कारण है कि उन्होंने दाम्पत्य रूपकों का आश्रय लेकर प्रेमपूर्ण सात्त्विक भावों की अनुभूति व्यक्त की किन्तु उसमें विलासिता की कहीं भी गन्ध नहीं आने पाई है। जैन-महाकाव्यों में सीता, अंजना, राजुल आदि सतियों का सौन्दर्य, उनका प्रेम और विरह-मिलन वर्णित है किन्तु सब कुछ शील के ऐसे धागे में आबद्ध है कि उसमें कहीं भी अश्लीलता नहीं आने पाई है। उसी प्रकार आनन्दघन के मुक्तक पदों में प्रेम, विरह-मिलन आदि से सम्बद्ध दाम्पत्यमूलक रूपक ऐसे बाँधे गए हैं कि वे मात्र चेतन और समता के आध्यात्मिक प्रेम को ही प्रकट करते हैं आध्यात्मिकता के अतिरिक्त उनमें कहीं भी विलासिता या भौतिकता को नहीं जोड़ा गया है। वास्तव में, उनके पदों में जहाँ-जहाँ प्रेमतत्त्व का उल्लेख हुआ है, वह नर-नारी का प्रेम न होकर चेतन और समता अथवा आत्मा और परमात्मा का विशुद्ध निरुपाधिक प्रेम है। स्वयं आनन्दघन ने लौकिक और आध्यात्मिक प्रेम के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है : प्रीत सगाई रे जगमां सह करै, प्रीत सगाई न कोय । प्रीत सगाई रे निरुपाधिक कही, सोपाधिक धन खोय ।।' १. आनन्दघन ग्रन्थावली, ऋपभजिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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