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________________ आनन्दघन का सावनात्मक रहस्यवाद दर्शन के प्रत्याहार और जैनदर्शन के प्रति संलीनता के अर्थ में विशेष अन्तर नहीं है। आनन्दघन की योग-साधना में ध्यान, धारणा तथा समाधि भी किसीन-किसी रूप में समाहत है। धारणा पतंजलि के अनुसार धारणा का लक्षण है-'देश बन्धश्चित्तस्य धारणा'चित्त को किसी देश विशेष में बांधना धारणा है, जब कि जैनदर्शन के अनुसार चित्त की एकाग्रता किसी एक स्थान पर अथवा किसी एक पुद्गल पर लगा देना धारणा है। सन्त आनन्दघन ने भी नमिजिन स्तवन में धारणा की चर्चा की है। ध्यान सामान्यतः ध्यान का तात्पर्य है-चित्तवृत्ति को केन्द्रित करना । आवश्यक नियुक्ति में कहा है कि किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर = एकाग्र करना ध्यान है। ध्यान योग का प्रमुख साधन है जिससे मन को एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। ध्यान के सम्बन्ध में जैनागमों में विशद् वर्णन उपलब्ध होता है। वास्तव में जैनधर्म की साधना में ध्यान को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उसे कर्मक्षय का साक्षात् कारण माना गया है। ध्यान एक साधना है। इससे आत्मा के शुद्ध स्वरूप का परिज्ञान होता है। इसी दृष्टिकोण को दृष्टिपथ में रखते हुए ही सम्भवतः आनन्दघन ने भी अपनी रचनाओं में अनेक स्थलों पर ध्यान का वर्णन किया है। १. योगदर्शन, ३।१। २. मुद्रा बीज धारणा अक्षर, न्यास अरथ विनियोगे रे । -आनन्दघन ग्रन्थावली, नमिजिन स्तवन । ३. वित्तस्लेगगया हवइ झाणं । -आवश्यक नियुक्ति, १४५९ । ४. आतम ध्यान करे जो कोउ, सो फिर इण मे नावै। -आनन्दघन ग्रन्थावली, मुनि सुव्रत जिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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