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________________ आनन्दधन का सावनात्मक रहस्यवाद तत्कालीन साधना-पद्धतियों की शब्दावली से उनका पूर्णतः परिचित होना अस्वाभाविक नहीं है। योग का स्वरूप 'योग' शब्द युज् धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'जोड़ना' । जो साधन आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है, उसको योग कहा जाता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है।' जब कि योग के सम्बन्ध में जैनदर्शन की अवधारणा यह है कि शरीर, वाणी तथा मन के कर्म का निरोध संवर है और यही योग है । आचार्य हरिभद्र का अभिमत है कि योग मोक्ष प्राप्त करानेवाला अर्थात् मोक्ष के साथ जोड़नेवाला है और आचार्य हेमचन्द्र ने तो योग को ज्ञान, श्रद्धान और चारित्रात्मक कहा है। सन्त आनन्दघन ने भी इसी का अनुसरण करते हुए सम्यक् चारित्र को ही योग के रूप में प्रकट किया है। वस्तुतः मोक्षप्राप्ति के जो कारणभूत साधन हैं, वही योग है। योग के विविध भेद ___मूलतः योग एक है, फिर भी स्थूल रूप से उसके अनेक भेद किए गए हैं । यथा-हठयोग, राजयोग अथवा अष्टांग-योग, लययोग,मंत्रयोग, जैन-योग आदि । आनन्दघन के रहस्यवाद में उक्त योग के सभी भेदों की विचारणा पाई जाती है। हठयोग हठयोग में विविध आसनों के द्वारा 'कायासाधन' किया जाता है। हठयोग विशेषरूप से शरीर से सम्बद्ध साधना है। इसमें मुख्यतः श्वासोच्छ्वास का निरोध किया जाता है। मध्ययुग में सिद्धों और नाथों ने हठयोग की प्रक्रिया का काफी प्रचार-प्रसार किया। हठयोग का सबसे प्रमुख विषय है नाड़ी-जय, इसका विकसित रूप कुण्डलिनी-शक्ति का है। योगी का लक्ष्य कुण्डलिनी शक्ति को सुषुम्ना के बीच से चक्रों का भेदन करते हुए सहस्रार कमल तक ले जाना है। जब कुण्डलिनो सहस्रार चक्र १. योगदर्शन, ११२। २. तत्त्वार्थ, ९।१। ३. योगविशिका, १॥ ४. अभिधान चिन्तामणि, ११७७ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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