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________________ आनन्दघन का सावनात्मक रहस्यवाद २५५ श्रद्धा जीवन का संबल है । जैन ग्रन्थों में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उससे ही मोक्ष मिल सकता है । सुत्तपिटक में भी कहा गया है कि मनुष्य श्रद्धा से संसार प्रवाह को पार कर जाता है ।' भगवद्गीता में श्रद्धा की महत्ता निम्नांकित शब्दों अभिव्यक्त हुई है—'यह पुरुष श्रद्धामय है । इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है । तात्पर्य यह कि जैसो जिसकी श्रद्धा है, वैसा ही उसका स्वरूप है । वस्तुतः श्रद्धा या सम्यग्दर्शन वह आधारभूत सोपान है जिसके ऊपर चारित्र रूपी भव्य प्रासाद निर्मित किया जा सकता है । उत्तराध्ययन सूत्र में तो यहां तक कहा है कि 'नत्थि चरितं सम्मतं विहूणं' सम्यक्त्व के बिना, श्रद्धा के बिना सम्यक् चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती । विश्वास या श्रद्धा के अभाव में चारित्र केवल बाह्य आचरण मात्र है। आनन्दघन ने भी सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध श्रद्धा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है : अर्थात् देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो किम रहै, शुद्ध श्रद्धान आणो । शुद्ध श्रद्धान विण सब किरिया करी, छारपर लीपंणो तेह जाणो ॥ ४ यदि एकान्त निरपेक्ष वचन का कथन किया जाय तो फिर देव, गुरु और धर्म के यथार्थता की परीक्षा कैसे हो सकती है ? और परीक्षा के अभाव में देव, गुरु-धर्म पर दृढ़ श्रद्धा कैसे टिक सकती है ? इसलिए सर्वप्रथम देव, गुरु और धर्म पर अन्धश्रद्धा नहीं, प्रत्युत परीक्षापूर्वक सम्यक् श्रद्धा का होना नितान्त आवश्यक है । सम्यक् श्रद्धा के अभाव में की गई समूची आध्यात्मिक साधनाएँ - क्रियाएँ राख (धूल) के ढेर पर लीपने के समान व्यर्थ है । चूंकि, सम्यग्दर्शनविहीन समस्त क्रियाएँ संसार की अभिवृद्ध ही करती हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि श्रद्धाविहीन साधक द्वारा कृत समस्त आचरण राख पर लीपने की भांति व्यर्थ श्रम है । जिस प्रकार राख लीपना व्यर्थ है, उसी प्रकार श्रद्धाहीन क्रियाएँ भी निष्फल होती १. सुत्तपिटक -सुत्तनिपात, १|१०|४ | २. श्रद्धामयोऽयं पुरुषो योयच्छ्रद्धः स एव सः । - भगवद्गीता, १७। ३ । ३. उत्तराध्ययन, २८।२९ । ४. आनन्दघन ग्रन्थावली, अनन्तजिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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