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________________ २३८ आनन्दघन का रहस्यवाद रहता । इसकी साधना कर लेने के बाद अन्य कुछ कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। जब अनन्त आनन्द मिल गया, अक्षय सुख मिल गया, फिर अब क्या पाना शेष रह गया ? कुछ भी तो शेष नहीं बचा, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया जाए एवं साधना की जाए । भारतीय दर्शन में इसी को मोक्ष कहा गया है, इसी को मुक्ति कहा गया है और इसी को मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य माना गया है ।"" उपनिषद्कारों ने भी कहा है— आनन्द ब्रह्मणो रूपं, तच्च मोक्षऽभिव्यज्यते । आनन्द (सुख) आत्मा का स्वरूप है और वह मोक्ष - अनावरण अवस्था में अपने असली स्वाभाविक रूप में प्रकट होता है । आत्मा के आनन्दमय स्वरूप के लिए सच्चिदानन्द के साथ ही चिदानन्द, परमानन्द, निजानन्द, सहजानन्द आदि शब्दों के प्रयोग भी मिलते हैं । यहाँ प्रश्न उठाया जा सकता है कि आनन्दघन ने 'सच्चिदानन्द' या 'चिदानन्द' आदि शब्द का प्रयोग न कर 'आनन्दघन' शब्द का प्रयोग ही क्यों किया अथवा आनन्द को ही आत्मा का साध्य क्यों माना ? लगता है कि उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन को लेकर ही किया होगा । यदि हम 'सच्चिदानन्द' शब्द का सन्धि-विच्छेद करें तो सत् + चित् + आनन्द - इन तीन शब्दों से मिलकर सच्चिदानन्द शब्द बना है । सत् यानी सत्ता, चित् अर्थात् चेतना और आनन्द । इसका शाब्दिक अर्थ होगा जिसमें सत्ता, चेतना और आनन्द ये तीनों पूर्णतया विकसित हों, वह परमतत्त्व या परमात्मा है । अब हम जरा गहराई से विचार करें तो हमें उक्त प्रश्न का समाधान तत्काल मिल जाता है । यहाँ ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि जैनदर्शन में आत्मा की सत्ता शाश्वत् एवं अनादि मानी गई है। इसमें कोई विवाद नहीं है । अतः संसारी आत्मा के पास अपनी सत्ता विद्यमान है । इसके अतिरिक्त जैनदर्शन में चित् अर्थात् चेतना को आत्मा (जीव ) का लक्षण माना गया है ( चेतना लक्षणो जीवः ) । इससे यह भी सिद्ध हो गया कि आत्मा चैतन्य स्वरूप है अर्थात् संसारी आत्मा के पास सत्ता के साथ-साथ चेतना भी है। सत्ता और चेतना संसार १. अध्यात्म प्रवचन, पृ० २६ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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